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प्रमुख आधार प्रस्तुत षट्खण्डागम और उसकी धवला टीका रही है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने के लिए यहाँ कुछ उदाहरण दिये जाते हैं
१. षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान से सम्बद्ध नौ चूलिकाओं में प्रथम 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' चूलिका है। उसमें यथाक्रम से कर्म को ज्ञानवरणीयादि आठ मूलप्रकृतियों और उनमें प्रत्येक की उत्तरप्रकृतियों का निर्देश किया गया है । मूल में यद्यपि केवल उनके नामों का ही निर्देश है, पर उसकी धवला टीका में उनके स्वरूप आदि के विषय में विस्तार से विचार किया गया है।
कर्मकाण्ड के पूर्वोक्त नौ अधिकारों में भी प्रथम अधिकार 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' ही है। उसमें मंगलपूर्वक प्रकृतिसमुत्कीर्तन के कथन की प्रतिज्ञा करते हुए प्रकृति के स्वरूप, कर्मनोकर्म के ग्रहण और निर्जरा के क्रम को प्रकट किया गया है । यहाँ प्रकृति के स्वरूप का निर्देश करते हुए उसके प्रकृति, शील और स्वभाव इन समानार्थक नामों का उल्लेख किया गया है (गाथा २)।
२. षट्खण्डागम के पांचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत जो 'प्रकृति' अनुयोगद्वार है उसक प्रारम्भ में उसकी सार्थकता को दिखलाते हुए धवला में भी उसके इन्हीं समानार्थक नामों का निर्देश इस प्रकार किया गया है
"प्रकृतिः स्वभाव: शीलमित्यनर्थान्तरम्, तं परुवेदि त्ति अणियोगद्दारं पि ‘पयडी'णाम उवयारेण ।"
-पु० १३, पृ० १६७ ३. कर्मकाण्ड में आगे इस अधिकार में मूल व उत्तरप्रकृतियों की प्ररूपणा करते हुए उनके घाती-अघाती व पुद्गलविपाकी-जीवविपाकी आदि भेदों का उल्लेख किया गया है। इस प्रसंग में वहाँ कर्म के आठ, एक सौ अड़तालीस और असंख्यात लोकप्रमाण भेदों का निर्देश भी किया गया है (गाथा ७)।
षट्खण्डागम के पूर्वनिर्दिष्ट 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में एक आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के ही ४,२४,२८,३२,४८,१४४,१६८,१६२,२२८,३३६ और ३८४ भेदों का निर्देश किया गया है (सूत्र ५,५,३५) । आगे वहाँ श्रुतज्ञानावरणीय के संख्यात भेदों का निर्देश है (सूत्र ५,५,४५) । अनन्तर आनुपूर्वी के प्रसंग में अवगाहनाभेदों के आश्रय से गणितप्रक्रिया के अनुसार नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी आदि के असंख्यात भेदों को प्रकट करते हुए उनमें परस्पर अल्पबहुत्व को भी दिखलाया गया है (सूत्र ५,५,११४-३२)।
कर्मकाण्ड में कर्मभेदों का जो निर्देश है उसका षट्खण्डागम के प्रकृतिअनुयोगद्वार में निर्दिष्ट उन भेदों की प्ररूपणा से प्रभावित होना सम्भव है।
४. कर्मकाण्ड में गोत्र कर्म के स्वरूप का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि सन्तानक्रम से आये हुए जीव के आचरण का नाम गोत्र है (गाथा १३)। __ यह धवला के इस कथन पर आधारित होना चाहिए
१. धवला पु० ६ में 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' चूलिका पृ० ५-७८ २. यह प्रकृतिसमुत्कीर्तन की प्रतिज्ञा समान रूप से इन दोनों ग्रन्थों में की गई है । यथा
इदाणि पयडिसमुक्कित्तणं कस्सामो ।-(ष०ख०, सूत्र १,६-१,३ पु० ६, पृ० ५) पणमिय सिरसा णेमि..... पडिसमुक्कित्तणं वोच्छं॥-गाथा १
षट्कण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | ३२५
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