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________________ होने पर भी वह अनन्त काल में भी समाप्त नहीं होती।' __इसी पद्धति से आगे इस ओघप्ररूपणा में सासादनसम्यग्दृष्टि आदि शेष गुणस्थानों में तथा आदेश की अपेक्षा यथाक्रम से गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में प्रस्तुत काल की प्ररूपणा की गयी है। ६. अन्तरानुगम अन्तर के छह भेद--- यह जीवस्थान का छठा अनुयोगद्वार है। पूर्व पद्धति के अनुसार यहाँ क्रम से ओघ और आदेश की अपेक्षा अन्तर की प्ररूपणा है। यहाँ धवलाकार ने प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए अन्तर के इन छह भेदों का निर्देश किया है-नाम-अन्तर, स्थापना-अन्तर, द्रव्य-अन्तर, क्षेत्र-अन्तर, काल-अन्तर और भाव-अन्तर । आगे क्रम से इनके स्वरूप और भेदों को बतलाते हुए उनमें यहाँ नोआगम भाव-अन्तर को प्रसंगप्राप्त निर्दिष्ट किया गया है। औपशमिक आदि पाँच भावों में दो भावों के मध्य में स्थित विवक्षित भागों को नोआगम भावअन्तर कहा जाता है। अन्तर, उच्छेद, विरह, परिणामान्तरप्राप्ति, नास्तित्वगमन और अन्यभावव्यवधान ये समानार्थक माने गये हैं। अभिप्राय यह है कि विवक्षित गुणस्थानवी जीव गणस्थानान्तर को प्राप्त होकर जितने समय में पुनः उस गुणस्थान को प्राप्त करता है उतना समय उस विवक्षित गुणस्थान का अन्तर होता है । यह अन्तर कम से कम जितना सम्भव है उसे जघन्य अन्तर और अधिक-से-अधिक जितना संभव है उसे उत्कृष्ट अन्तर कहा जाता है। प्रस्तुत अन्तरानुगम अनुयोगद्वार में इसी दो प्रकार के अन्तर का विचार नाना जीव और एक जीव की अपेक्षा से किया गया है (पु० ५, पृ० १-४)। ओघ की अपेक्षा अन्तर ओघ की अपेक्षा अन्तर की प्ररूपणा करते हुए सूत्रकार द्वारा सर्वप्रथम मिथ्यादृष्टियों के अन्तर के प्रसंग में नाना जीवों की अपेक्षा उनके अन्तर का अभाव प्रकट किया गया है (सूत्र १, ६,२)। अभिप्राय यह है कि मिथ्यादृष्टि जीव सदा विद्यमान रहते हैं, उनका कभी अन्तर नहीं होता। एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त मात्र और उत्कृष्ट कुछ कम दो छ्यासठ सागरोपम प्रमाण कहा गया है (१,६, ३-४)। इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा है कि कोई एक मिथ्या दृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम में अनेक बार परिवर्तित होकर परिणाम के वश सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। वहाँ वह सबसे हीन अन्तर्मुहूर्त काल उस सम्यक्त्व के साथ रहकर मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया। इस प्रकार मिथ्यात्व का सबसे जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त प्राप्त होता है। यहाँ शंकाकार मिथ्यात्व के अन्तर को असम्भव बतलाते हुए कहता है कि सम्यक्त्वप्राप्ति के पूर्व जो मिथ्यात्व रहा है वही मिथ्यात्व उस सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् सम्भव नहीं है, वह उससे भिन्न ही रहनेवाला है। अतः इन दोनों मिथ्यात्वों के भिन्न होने से मिथ्यात्व का अन्तर सम्भव नहीं है। १. धवला पु० ४, पृ० ३३६-३६ घटनाडागम पर टोकाएँ । ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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