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किन्तु जो क्रम से उत्पाद, स्थिति और व्यय से संयुक्त होता है वह पर्याय है । इस पर पुनः यह शंका उत्पन्न हुई है कि ऐसा मानने पर पृथिवी, जल, तेज और वायु के भी पर्यायरूपता का प्रसंग प्राप्त होता है। इसके उत्तर में वहां कहा गया है कि वैसा मानने पर यदि उक्त पृथिवी आदि के पर्यायरूपता प्राप्त होती है तो हो, यह तो इष्ट ही है। इस पर यदि यह कहा जाय कि लोक में तो उनके विषय में द्रव्यरूपता का व्यवहार देखा जाता है तो इसमें भी कुछ विरोध नहीं है। कारण यह कि उनमें वैसा व्यवहार शुद्ध-अशुद्ध द्रव्याथिकनयों से सापेक्ष नैगमनय के आश्रय से होता है। इसे भी स्पष्ट करते हुए आगे वहाँ कहा गया है कि शुद्ध द्रव्याथिकनय का आलम्बन करने पर तो जीवादि छह ही द्रव्य हैं। पर अशुद्ध द्रव्याथिकनय की अपेक्षा पृथिवी आदि अनेक द्रव्य हैं, क्योंकि इस नय की विवक्षा में व्यंजन पर्याय को द्रव्य माना गया है। साथ ही, शुद्ध पर्यायार्थिकनय की प्रमुखता में पर्याय के उत्पाद और विनाश ये दो ही लक्षण हैं, पर अशुद्ध पर्यायाथिकनय का आश्रय लेने पर क्रम से उत्पादादि तीनों भी उसके
योंकि वज्रशिला और स्तम्भ आदि में जो व्यंजन पर्याय है उसके उत्पाद और विनाश के साथ स्थिति भी पायी जाती है। प्रकृत में मिथ्यात्व भी व्यंजन पर्याय है, इसलिए उसके भी क्रम से उत्पाद, विनाश और स्थिति इन तीनों के रहने में कुछ विरोध नहीं है। ___ इसी प्रसंग में एक अन्य शंका यह भी उठायी गयी है कि भव्य के लक्षण में जो यह कहा गया है कि जिनके भविष्य में सिद्धि (मुक्तिप्राप्ति) होने वाली है वे भव्य सिद्ध हैं, तदनुसार सब भव्य जीवों का अभाव हो जाना चाहिए। और यदि ऐसा नहीं माना जाता है तो फिर भव्य जीवों का वह लक्षण विरोध को प्राप्त होता है । व्यय से सहित राशि नष्ट नहीं होती है, यह कहना भी शक्य नहीं है, क्योंकि अन्यत्र वैसा देखा नहीं जाता है।
धवलाकार के अनुसार यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भव्य जीवराशि अनन्त है। अनन्त उसे ही कहा जाता है जो संख्यात व असंख्यात राशि का व्यय होने पर भी, अनन्त काल में भी समाप्त नहीं होता।' इस पर दोषोद्भावन करते हुए यह कहा गया है कि यदि व्यय सहित राशि समाप्त नहीं होती है तो व्यय से सहित जो अर्धपुद्गल परिवर्तन आदि राशियाँ हैं उनकी अनन्तरूपता नष्ट होती है। उत्तर में कहा है कि यदि अनन्तरूपता समाप्त होती है तो हो, इसमें कोई दोष नहीं है। इस पर यदि यह कहा जाय कि उनमें सूत्राचार्य के व्याख्यान से प्रसिद्ध अनन्तता का व्यवहार तो उपलब्ध होता है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह उपचार के आश्रित है-यथार्थ नहीं है। आगे उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जैसे प्रत्यक्ष प्रमाण से उपलब्ध स्तम्भ को ही लोक व्यवहार में उपचार से प्रत्यक्ष कहा जाता है वैसे ही अवधिज्ञान की विषयता का उल्लंघन करके जो राशियाँ हैं उन्हें भी अनन्त केवलज्ञान की विषय होने के कारण उपचार से अनन्त कहा जाता है।
प्रकारान्तर से इस शंका के समाधान में धवलाकार ने यह भी कहा है-अथवा व्यय के होने पर भी कोई राशि अक्षय (न समाप्त होनेवाली) भी है, क्योंकि सबको उपलब्धि अपने प्रतिपक्ष के साथ ही हुआ करती है। तदनुसार व्यय की उपलब्धि भी अपने प्रतिपक्षभूत अव्यय (अक्षय) के साथ समझना चाहिए। इस प्रकार यह भव्यराशि भी अनन्त है, इसीलिए व्यय के
१. संते वए ण णि?दि कालेणाणंतएण वि ।
जो रासी सो अणंतो त्ति विणिद्दिवो महेसिणा ||--धवला पु० ४, पृ० ३३८(उद्धृत)
४१८/ षट्खण्डागम-परिशीलन
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