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________________ के कारण का निरोध हो जाता है। इस पर पुनः यह शंका उपस्थित हुई है कि जो ध्यान के द्वारा अनन्तानन्त जीवों का विघात करते हैं उन्हें मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि अप्रमाद के द्वारा-प्रमाद के न रहने से-उन जीवों के विधात के होने पर भी उनके मुक्त होने में कुछ बाधा नहीं है। प्रसंग के अनुसार यहाँ अप्रमाद का स्वरूप भी स्पष्ट किया है । तदनुसार पांच महाव्रत, पांच समितियां, तीन गुप्तियाँ और सम्पूर्ण कषाय के अभाव का नाम अप्रमाद है। अप्रमाद की इस अवस्था में समस्त कषाय से रहित हो जाने के कारण द्रव्यहिंसा के होने पर भी संयत के कर्मबन्ध नहीं होता है । इसके विपरीत प्रमाद की अवस्था में बाह्य हिंसा के न होने पर भी अन्तरंग हिंसा-जीवविघात के परिणामवश सिक्थ मत्स्य के कर्मबन्ध उपलब्ध होता है । इससे सिद्ध है कि शुद्धनय से अन्तरंग हिंसा ही वस्तुतः हिंसा है, न कि बहिरंग हिंसा । वह अन्तरंग हिंसा क्षीणकषाय के सम्भव नहीं है, क्योंकि वहां कषाय और असंयम का अभाव हो चुका है। इस अभिमत की पुष्टि धवलाकार ने प्रवचनसार की एक गाथा (३-१७) को उद्धृत करते हुए की है। इसी प्रसंग में मूलाचार की भी दो गाथाएं (५,१३१-३२) उद्धत की हैं। क्षीणकषाय के प्रथम समय से लेकर निगोदजीव तब तक उत्पन्न होते हैं जब तक उन्हीं का जघन्य आयुकाल शेष रहता है । तत्पश्चात् वे वहां नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि उत्पन्न होने पर उनके जीवित रहने का काल शेष नहीं रहता है (पु० १४, पृ० ८४-६१)। . आगे यहाँ धवला में इस जघन्य बादर निगोदद्रव्यवर्गणा के प्रसंग में भी स्थानों की प्ररू. पणा लगभग उसी प्रक्रिया से की गयी है जिस प्रक्रिया से पूर्व में प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा के प्रसंग में की गयी है (पृ० ६१-११२) । उत्कृष्ट बादर निगोदद्रव्यवर्गणा किसके होती है, इसे बतलाते हुए धवला में कहा गया है कि पूर्व प्रक्रिया के अनुसार जगणि के असंख्यातवें भाग मात्र पुलवियों के बढ़ने पर कर्मभूमिप्रतिभागभत स्वयम्भूरमणद्वीप में स्थित मूली के शरीर में जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र एकबन्धनबद्ध पुलवियों को ग्रहण करके उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा होती है। जघन्य से आगे और उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा के नीचे उत्पन्न सब विकल्पों को उसके मध्यम विकल्प समझना चाहिए। सूक्ष्म निगोदद्रव्यवर्गणा यह तेईस वर्गणाओं में इक्कीसवीं वर्गणा है । वह जल, स्थल और आकाश में सर्वत्र देखी जाती है, क्योंकि उसका बादरनिगोदवर्गणा के समान कोई नियत देश नहीं है। सबसे जघन्य सूक्ष्म निगोदद्रव्यवर्गणा क्षपितकौशिक स्वरूप से और क्षपितघोलमान स्वरूप से आये हुए सूक्ष्म निगोदजीवों के होती है, दूसरे जीवों के नहीं; क्योंकि उनके द्रव्य की जघन्यता सम्भव नहीं है। यहाँ भी आवली के असंख्यातवें भाग मात्र पुलवियाँ होती हैं। उनमें से प्रत्येक पुलवी में असंख्यात लोकमात्र निगोदशरीर और एक-एक निगोदशरीर में अनन्तानन्त जीव होते हैं। उन जीवों में क्षपितकौशिक रूप से आये हुए जीव आवली के असंख्यातवें भाग मात्र ही होते हैं, शेष सब क्षपितघोलमान होते हैं। इन अनन्तानन्त जीवों के औदारिक, तेजस और कार्मणशरीरों के कर्म, नोकर्म और विस्रसोपचय परमाणु-पुद्गलों को ग्रहण करके सबसे जघन्य सूक्ष्म निगोद षट्खण्डागम पर टोकाएं / ५२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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