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________________ होती है । अब यहाँ वृद्धि नहीं है, क्योंकि वह सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हो चुकी है। इस प्रकार अन्य भी प्रासंगिक प्ररूपणा धवला में की गयी है । जिन जीवों के निगोदजीवों का सम्बन्ध नहीं है उनका उल्लेख इस प्रकार किया गया हैपृथिवी, जल, तेज, वायु, देव, नारक, आहारकशरीरी प्रमत्तसंयत, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली | ये सब प्रत्येकशरीर हैं । * बादरनिगोदवर्गणा 1 यह उन्नीसवीं बादर निगोदवर्गणा सर्वजघन्य रूप में क्षीणकषाय के अन्तिम समय में होती है । उसकी विशेषता को प्रकट करते हुए धवला में कहा गया है कि जो जीव क्षपितकर्माशिकस्वरूप से आकर पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है, वहीं गर्भ से लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त के ऊपर जिसने सम्यक्त्व और संयम दोनों को एक साथ प्राप्त किया है तथा जो कुछ कम पूर्वकोटिकाल तक कर्म की उत्कृष्ट गुणश्रेणिनिर्जरा को करता हुआ सिद्ध होने में अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रह जाने पर क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हुआ; इस प्रकार उत्कृष्ट विशुद्धि द्वारा कर्मनिर्जरा करते हुए उस क्षीणकषाय के प्रथम समय में अनन्त बादर निगोदजीव मरण को प्राप्त होते हैं । द्वितीय समय में उनसे विशेष अधिक जीव मरते हैं । क्षीणकषायकाल के प्रथम समय से लेकर आवलिपृथक्त्व मात्र काल के व्यतीत होने तक तृतीयादि समयों में भी उत्तरोत्तर विशेष अधिक के क्रम से उक्त बादर निगोद जीव मरण को प्राप्त होते हैं । तत्पश्चात् क्षीणकषायकाल में आवली का असंख्यातव भाग शेष रह जाने तक वे उत्तरोत्तर संख्यातवें भागसंख्यातवें भाग अधिक के क्रम से मरण को प्राप्त होते हैं। पश्चात् अनन्तर समय में वे उनसे प्रसंख्यातगुणे मरते हैं । इस प्रकार क्षीणकषाय के अन्तिम समय तक वे उत्तरोत्तर असंख्यातगुणेअसंख्यातगुणे मरते हैं । गुणकार का प्रमाण यहाँ पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग निर्दिष्ट है । निगोद कौन होते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि पुलवी निगोद कहलाते हैं । यहीं स्कन्ध, अण्डर, आवास, पुलवी और निगोदशरीर इन पांच का निर्देश है। उनमें मूली, यूहर आदि को स्कन्ध कहा गया है। इसी प्रकार अण्डर आदिकों के स्वरूप का भी निर्देश कर उन्हें उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझाया है - जिस प्रकार तीन लोक के भीतर भरत, उसके भीतर जनपद, उनके भीतर ग्राम और उनके भीतर पुर होते हैं, उसी प्रकार स्कन्धों के भीतर अण्डर, उनके भीतर आवास, उनके भीतर पुलवियाँ और उनके भीतर निगोदशरीर होते हैं । ये प्रत्येक असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं । यहाँ क्षीणकषायशरीर को स्कन्ध कहा है, क्योंकि वह असंख्यात लोकप्रमाण अण्डरों का आधारभूत है । वहाँ अण्डरों के भीतर स्थित अनन्तानन्त जीवों के प्रत्येक समय में असंख्यातगुणित श्रेणि के क्रम से शुक्लध्यान के द्वारा मरण को प्राप्त होने पर क्षीणकषाय के अन्तिम समय में मरने वाले अनन्त जीव होते हैं । अनन्त होकर भी वे द्विचरम समय में मरे हुए जीवों से असंख्यातगुणे होते हैं । धवला में अन्य किन्हीं आचार्यों के अभिमतानुसार पुलवियों के आश्रय से भी निगोदजीवों के मरने के क्रम की प्ररूपणा की गयी है । ये जीव वहाँ क्यों मरण को प्राप्त होते हैं, ऐसी शंका के उपस्थित होने पर उसका समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि वहाँ ध्यान के द्वारा निगोदजीवों की उत्पत्ति और स्थिति ५२६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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