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________________ है । तदनुसार एक जीव के एक शरीर में उपचित कर्म और नोकर्मस्कन्धों का नाम प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा है । वह जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यवर्ती विकल्पों के अनुसार अनेक प्रकार की है। उनमें सबसे जघन्य वह किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जो जीव सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्तों में पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन कर्मस्थितिकाल तक क्षपितकर्माशिक' स्वरूप से रहा है । पश्चात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र संयमासंयमकाण्ड को और उनसे विशेष अधिक सम्यक्त्व व अनन्तानुबन्धिविसंयोजन काण्डकों को तथा आठ संयमकाण्डकों को करके व चार वार कषायों को उपशमाकर अन्तिम भवग्रहण में पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है । पश्चात् गर्भ से निकलने को आदि करके आठ वर्ष व अन्तर्मुहूर्त के ऊपर जो सम्यक्त्व और संयम को एक साथ ग्रहण करके सयोगी जिन हो गया है । अनन्तर कुछ कम पूर्वकोटि काल तक अधः स्थितिगलन द्वारा समस्त औदारिकशरीर और तेजसशरीर की निर्जरा को तथा कार्मणशरीर की गुणश्रेणिनिर्जरा को करके अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक हुआ है । इस प्रकार के स्वरूप से आये हुए अयोगी के अन्तिम समय में सबसे जघन्य प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा होती है, क्योंकि उसके शरीर में निगोदजीवों का अभाव होता है । आगे धवलाकार ने 'इस वर्गणा के माहात्म्य के ज्ञापनार्थ हम स्थानप्ररूपणा करते हैं' इस सूचना के साथ उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है—औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरों के परमाणुपुंजों को ऊपर रखकर उनके नीचे उन्हीं तीन शरीरों के विस्रसोपचयपुंजों को रक्खे । इन छह जघन्य परमाणुपुंजों के ऊपर परमाणुओं को इस प्रकार बढ़ाना चाहिएक्षपितकर्माशिकस्वरूप से आये हुए उस अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक के औदारिकशरीर सम्बन्धी विस्रसोपचयपुंज में एक परमाणु के बढ़ाने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । उसमें दो परमाणुओं के बढ़ाने पर तीसरा अपुनरुक्त स्थान होता है। तीन परमाणुओं के बढ़ाने पर चौथा अपुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार उक्त औदारिकशरीरगत विस्रसोपचयपुंज में एक एक परमाणु की वृद्धि के क्रम से सब जीवों से अनन्तगुणे मात्र परमाणुओं को बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार से बढ़ाने पर औदारिकशरीरगत विस्रसोपचयपुंज में सब जीवों से अनन्तगुणे मात्र अपुनरुक्त स्थान प्राप्त होते हैं । इस पद्धति से आगे वहाँ अन्य क्षपितकर्माशिक तथा गुणितकर्माशिक को विवक्षित करके तेजस, कार्मण व वैक्रियिक शरीर के आधार से भी उन अनुनरुक्त स्थानों की प्ररूपणा की गयी है । अन्तिम विकल्प को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि गुणितकर्माशिक जीव सातवीं पृथिवी में तैजस और कार्मण शरीरों को उत्कृष्ट करके मरण को प्राप्त होता हुआ दोतीन भवों में तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ और तत्पश्चात् पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहाँ गर्भ से आदि करके आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त के ऊपर सयोगी जिन होकर कुछ कम पूर्वकोटि तक संयम गुणश्रेणिनिर्जरा करता हुआ अयोगी हो गया । इस प्रकार अयोगी हुए उसके अन्तिम समय में स्थित होने पर प्रत्येकशरीरवर्गणा पूर्वोक्त प्रत्येकशरीरवर्गणा के समान १. क्षपितकर्माशिक के लक्षण के लिए सूत्र ४, २, ४, ४६-७५ द्रष्टव्य हैं । Jain Education International - ( पु० १०, पृ० २६८-६६ ) षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ५२५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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