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________________ रहित है, इसलिए अपने विषयभूत क्षेत्र के भीतर नियत विषय के ग्रहण करने में विसी प्रकार की बाधा सम्भव नहीं है। दूसरे मत के अनुसार, लोक के अन्त में स्थित अर्थ को जाननेवाला वहाँ स्थित चित्त को नहीं जानता है, यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि अपने क्षेत्र के भीतर स्थित अपने विषयभूत अर्थ का न जानना घटित नहीं होता है; इस प्रकार दूसरे मत के अनुसार प्रसंगप्राप्त लोक के अन्त में स्थित चित्त को जानना चाहिए। पर वैसा सम्भव नहीं है, अन्यथा क्षेत्रप्रमाण की प्ररूपणा ही निष्फल ठहरती है। इससे यही अभिप्राय निकलता है कि पैंतालीस लाख योजन के भीतर स्थित होकर चिन्तन करनेवाले जीवों के द्वारा चिन्त्यमान पदार्थ यदि मनःपर्ययज्ञान के प्रकाश से व्याप्त क्षेत्र के भीतर है तो वह उसे जानता है, नहीं तो नहीं जानता है।' ___ केवलज्ञानावरणीय की प्ररूपणा के प्रसंग में केवलज्ञान की विशेषता को प्रकट करते हुए सूत्र में कहा गया है कि स्वयं उत्पन्न ज्ञान-दर्शनवाले भगवान् देवलोक, असुरलोक व मनुष्यलोक की आगति, गति, चयन, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कल, मान (मन) मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरहःकर्म, सर्वलोक, सब जीव और सब भावों को एक साथ जानते हैं, देखते हैं व विहार करते हैं। ___इसकी व्याख्या में धवलाकार ने सूत्रनिर्दिष्ट गति-आगति सभी के स्वरूप को स्पष्ट किया है। धवला में आगे दर्शनावरणीय आदि शेष मूल प्रकृतियों की भी उत्तर प्रकृतियों को स्पष्ट किया गया है। ४. बन्धन अनुयोगद्वार यह अनुयोगद्वार बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चार अधिकारों में विभक्त है। यहां मूलग्रन्थकार के द्वारा जो विवक्षित विषय की प्ररूपणा की गयी है, वह अपने आप में बहुत-कुछ स्पष्ट है। इसलिए धवला में प्रसंगप्राप्त अधिकांश सूत्रों के अभिप्राय को ही स्पष्ट किया गया है। जहाँ प्रसंग पाकर धवला में विवक्षित विषय की विस्तार से प्ररूपणा है, उसी का परिचय यहाँ कराया जा रहा है। शेष के लिए 'मूलग्रन्थगत विषय-परिचय' को देखना चाहिए। प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा 'बन्धन' के अन्तर्गत उपर्युक्त चार अधिकारों में जो तीसरा 'बन्धनीय' अधिकार है उसमें २३ वर्गणाओं की प्ररूपणा की गई है। उनमें सत्रहवीं वर्गणा प्रत्येकशरीरद्र व्यवर्गणा है। उसके विषय में धवलाकार ने विशेष प्रकाश डाला है। सर्वप्रथम धवला में उसके लक्षण का निर्देश १. धवला, पु० १३, पृ० ३४३-४४ २. सूत्र ५,५,८२ (इस सन्दर्भ की तुलना आचारांग द्वि० श्रुतचूलिका ३, सूत्र १८, पृ० ८८८ __ से करने योग्य है।) ३. धवला, पु० १३, पृ० ३४६-५३ ५२४ / पखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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