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________________ खण्ड में की गयी है, उसी प्रकार से यहां करना चाहिए, क्योंकि उसमें कुछ भेद नहीं है।' ___ इसी प्रसंग में वहां सूत्रनिर्दिष्ट (५,५,५६) समय, आवली आदि कालभेदों को स्पष्ट करते हुए अनेक गाथासूत्रों (३-१७) के आश्रय से क्षेत्र व काल आदि की अपेक्षा उसके विषय की विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। __ मनःपर्यय ज्ञानावरणीय के प्रसंग में ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान किस प्रकार ऋजुमनागत .... वचनगत और ऋजुकायगतं अर्थ को तथा विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान किस प्रकार ऋजु व अनुज मन-वचन-कायगत अर्थ को जानता है, इसका स्पष्टीकरण धवला में किया गया है । इसी प्रसंग में वहां मनःपर्ययज्ञान मन (मतिज्ञान) से मानस को-दूसरों के मन में स्थित अर्थ को- ग्रहण करके सूत्रनिर्दिष्ट (५,५,६३) जिन संज्ञा, मति, स्मृति, चिन्ता, जीवित, मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, नगरविनाश एवं देशविनाश आदि अनेक विषयों को जानता है, उनको भी स्पष्ट किया गया है। क्षेत्र की अपेक्षा विपुलमति मनःपर्ययज्ञान के विषय के प्रसंग में सूत्र में यह निर्देश किया गया है कि वह उत्कर्ष से मानुषोत्तर पर्वत के भीतर जानता है, उसके बाहर नहीं जानता है। (सूत्र ५, ५,७७) इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि 'मानुषोत्तर पर्वत' यहाँ उपलक्षण है, सिद्धान्त नहीं है, इसलिए उसका यह अभिप्राय समझना चाहिए कि पैंतालीस लाख योजन प्रमाण क्षेत्र के भीतर स्थित जीवों के तीनों काल-सम्बन्धी चिन्ता के विषय को जानता है। इससे मानुषोत्तर पर्वत के बाहर भी अपने विषयभूत क्षेत्र के भीतर स्थित रहकर चिन्तन करनेवाले देवों व तियंचों के भी चिन्तित विषय को वह विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान जानता है, यह सिद्ध होता है। यहाँ धवलाकार ने उक्त विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान के उष्कृष्ट विषय के सम्बन्ध में उपलब्ध दो भिन्न मतों का उल्लेख करते हुए कहा है कि कितने ही आचार्य यह कहते हैं कि विपुलमतिमनःपर्यय मानुषोत्तर पर्वत के भीतर ही जानता है। तदनुसार उसका यह अभिप्राय हुआ कि वह मानुषोत्तर पर्वत के बहिर्भूत विषय को नहीं जानता। ___अन्य कुछ आचार्यों का कहना है कि विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी मानुषोत्तर पर्वत के भीतर ही स्थित रहकर जिस अर्थ का चिन्तन किया गया है, उसे जानता है। इस मत के अनुसार, लोक के अन्त में स्थित अर्थ को भी वह प्रत्यक्ष जानता है। इन दोनों मतों को असंगत ठहराते हुए धवलाकार ने कहा है कि ये दोनों ही मत ठीक नहीं हैं, क्योंकि इस प्रकार से अपने विषयभूत क्षेत्र के भीतर आये हुए पदार्थ का बोध न हो सके, यह घटित नहीं होता। कारण यह है कि मानुषोत्तर पर्वत के द्वारा उस मनःपर्ययज्ञान का प्रतिघात होता हो, यह तो सम्भव नहीं है, क्योंकि वह पराधीन होने के कारण व्यवधान से १. धवला, पु० १३, पृ० २६३ तथा 'कृति' अनुयोगद्वार (पु० ६) में देशावधि पृ० १४-४०, परमावधि पृ० ४१-४७, सर्वावधि पृ० ४७-५१ २. धवला, पु० १३, पृ० २६८-३२८; यहां जिन गाथासूत्रों के आधार से उसके विषयविकल्पों की प्ररूपणा की गई है उनमें अधिकांश वे महाबन्ध (भा० १) में भी उस प्रसंग में उपलब्ध ___ होते हैं, पूर्वोक्त कृति-अनुयोगद्वार में उन्हें उस प्रसंग में उद्धृत किया जा चुका है। ३. धवला पु० १३, पृ० ३२८-४१ (सूत्र ६३ की टीका द्रष्टव्य है-पृ० ३३२-३६) षट्खण्डागम पर टीकाएँ | ५२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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