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५. षट्खण्डागम में प्रतिपाद्य विषय का निरूपण प्रारम्भ में निर्दिष्ट अनुयोगद्वारों के क्रम से किया गया है। पर विवक्षित विषय से सम्बद्ध जिन प्रासंगिक विषयों की चर्चा उन अनुयोगद्वारों में नहीं की जा सकी है उनकी चर्चा वहाँ अन्त में चूलिकाओं को योजित कर उनके द्वारा की गई है। उदाहरणार्थ, षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि पाठ अनुयोगद्वारों में क्षेत्र, काल और अन्तर इन अनुयोगद्वारों में जो विविध जीवों के क्षेत्र व काल आदि का निरूपण किया गया है वह जीवों की गति-आगति और कर्मबन्ध पर निर्भर है, अतः जिज्ञासु जन की जिज्ञासापूर्ति के लिए कर्मप्रकृति के भेद व उनकी उत्कृष्टजघन्य स्थिति आदि का भी विचार करना आवश्यक प्रतीत हुआ है । इससे उस जीवस्थान खण्ड के अन्त में नौ चूलिकाओं को योजित कर उनके द्वारा उक्त आठ अनुयोगद्वारों से सूचित अनेक आवश्यक विषयों की चर्चा है । इस सब की सूचना वहाँ प्रारम्भ में ही इस प्रकार कर दी गई है
"कदि कामो पयडीयो बंधदि, केवडिकालटिदिएहि कम्मेहि सम्मत्तं लब्भदि वा, ण लब्भदि वा, केवचिरेण कालेण वा कदि भाए वा करेदि मिच्छत्तं, उवसामणा वा खवणा वा केसु व खेत्तेसु कस्स व मूले केवडियं वा दंसणमोहणीयं कम्मे खवेंतस्स चारित्तं वा संपुण्णं पडिवज्जंतस्स।"
-सूत्र १,६-१,१ (पु०६) इन प्रश्नों का समाधान वहां यथाक्रम से जीवस्थान की उन नौ चूलिकाओं द्वारा किया गया है।
प्रकृत सूत्र की स्थिति, शब्दरचना और प्रसंग को देखते हुए यही निश्चित प्रतीत होता है कि उन नौ चूलिकाओं की रचना षट्खण्डागमकार आचार्य भूतबलि के द्वारा ही की गई है । इससे यह कहना कि चूलिकाएँ ग्रन्थ में पीछे जोड़ी गई हैं, उचित नहीं होगा । सर्वार्थसिद्धि के कर्ता आचार्य पूज्यपाद ने उसकी रचना में जिस प्रकार षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान का भरपूर उपयोग किया है उसी प्रकार उस जीवस्थान खण्ड की इन नी चूलिकाओं में से ८वीं सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका और हवीं गति-आगति चूलिका का भी उन्होंने पूरा उपयोग किया है। यह पीछे 'षट्खण्डागम व सर्वार्थसिद्धि' के प्रसंग में स्पष्ट किया जा चुका है।
प्रज्ञापना में इस प्रकार की कोई चूलिका नहीं रही है । उसके अन्तर्गत ३६ पदों में १६वां 'सम्यक्त्व' नाम का एक स्वतन्त्र पद है । उसमें सम्यक्त्व का विशद विवेचन विस्तार से किया जा सकता था । परन्तु जिस प्रकार उसके १५वें 'इन्द्रिय' पद में प्रथम उद्देश के अन्तर्गत २४ द्वारों के आश्रय से तथा द्वितीय उद्देशगत १२ द्वारों के आश्रय से इन्द्रिय सम्बद्ध विषयों की विस्तार से प्ररूपणा की गई है, उस प्रकार प्रकृत 'सम्यक्त्व' पद में सम्यक्त्व के विषय में विशेष कुछ विचार नहीं किया गया। वहाँ केवल सामान्य से जीव, नारक, असुरकुमार, पृथिवीकायिकादि, द्वीन्द्रियादिक, पंचेन्द्रिय मनुष्यादिक और सिद्धों के विषय में पृथक्-पृथक् क्या वे सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, या सम्यग्मिथ्या दृष्टि हैं, इस प्रकार के प्रश्नों को उठाकर मात्र उसका ही समाधान किया गया है। इस प्रकार यह सम्यक्त्व का प्रकरण वहाँ आधे पृष्ठ (३१६) में ही समाप्त हो गया है।'
(सूत्र १३६६-१४०५)
१. विशेष जानकारी के लिए धवला (पु० ६) में पृ० २-४ द्रष्टव्य हैं। २. इस प्ररूपणा में वहाँ पूर्व के समान इन्द्रियादि का भी कम नहीं रहा।
२४४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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