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________________ यदि यहाँ उस सम्यक्त्व का सर्वांगपूर्ण विचार प्रकृत 'सम्यक्त्व' पद में अथवा चूलिकाजैसे किसी अन्य प्रकरण को जोड़कर किया गया होता तो वह आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत उपयोगी प्रमाणित होता। ६. प्रस्तुत दोनों गन्थ सूत्रात्मक, विशेषकर गद्यसूत्रात्मक हैं । फिर भी उनमें कुछ गाथाएँ भी उपलब्ध होती हैं । यह अवश्य है कि षट्खण्डागम की अपेक्षा प्रज्ञापना में ये गाथाएँ अधिक हैं । षट्खण्डागम में ये गाथाएँ जहाँ केवल ३६ हैं वहाँ प्रज्ञापना में ये २३१ हैं।' __षट्खण्डागम के अन्तर्गत उन गाथाओं में अधिकांश परम्परा से कण्ठस्थ रूप में प्रवाहित होकर आचार्य भूतबलि को प्राप्त हुई हैं और उन्होंने उन्हें सूत्रों के रूप में ग्रन्थ का अंग बना लिया है, ऐसा प्रतीत होता है। परन्तु प्रज्ञापनागत गाथाओं में सभी परम्परागत प्रतीत नहीं होती। इसका कारण है कि उनमें अधिकांश गाथाएँ विवरणात्मक दिखती हैं। जिस प्रकार भाष्यकार जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण आदि ने नियुक्तिगत गाथाओं की व्याख्या भाष्यगाथाओं के द्वारा की है उसी प्रकार की यहां भी कुछ गाथाएँ उपलब्ध होती हैं । जैसे—गाथा १३ में प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक के जिन १२ भेदों का निर्देश किया गया है उनको स्पष्ट करनेवाली १३-४६ गाथाएँ । ऐसी प्रचुर गाथाएँ वहाँ उपलब्ध होती हैं, जो प्रज्ञापनाकार के द्वारा रची गई नहीं दिखतीं। किन्तु उन्हें कहीं अन्यत्र से लेकर ग्रन्थ में समाविष्ट किया गया है, ऐसा प्रतीत होता है । वे अन्यत्र कहाँ से ली गईं, यह अन्वेषणीय है । इसका संकेत कहीं-कहीं स्वयं ग्रन्थकार के द्वारा भी किया गया है । यथा (१) “एएसिं णं इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ। तं जहा--" ऐसी सूचना करते हुए आगे साधारणशरीर वनस्पतिकायिव जीवों के कंदादि भेदों की प्ररूपंक १०७-६ गाथाओं को उद्धृत किया गया है । (सूत्र ५५ [३]) । (२) "नवरं भवणनाणत्तं इंदणाणत्तं वण्णणाणत्तं परिहाणणाणत्तं च इमाहि गाहाहि अणुगंतव्वं' ऐसी सूचना करते हुए आगे १३८-४४ गाथाओं को उद्धृत किया गया है । (सूत्र १८७) (३) 'संगहणिगाहा' ऐसा निर्देश करते हुए आगे गाथा १५१-५३ को उद्धृत किया गया है । (सूत्र १९४) (४) गाथा १५४-५५ के पूर्व कुछ विशेष संकेत न करके ठीक उनके आगे 'सामाणियसंगहणीगाहा' ऐसा निर्देश करते हुए गाथा १५६ को उद्धृत किया गया है । (सूत्र २०६) (५) "एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । संगहणिगाहा" ऐसी सूचना करते हुए गाथा १६१ को उद्धृत किया गया है । (सूत्र ८२६ [२]) १. जिस प्रकार षट्खण्डागम के प्रारम्भ में पंचपरमेष्ठिनमस्कारात्मक मंगलगाथा उपलब्ध होती है उसी प्रकार प्रज्ञापना के प्रारम्भ में भी वही पंचपरमेष्ठिनमस्कारात्मक मंगल गाथा उपलब्ध होती है । धवलाकार आ० वीरसेन के अभिमतानुसार वह आ० पुष्पदन्त द्वारा विरचित सिद्ध होती है। देखिए पु० ६, पृ० १०३-५ में मंगल के निबद्ध-अनिबद्ध भेदविषयक प्ररूपणा। धवला पु० २ की प्रस्तावना में इस प्रसंग से सम्बन्धित १६-२१ पृष्ठ और पु० १ (द्वि० संस्करण) का 'सम्पादकीय' पृ० ५-६ भी द्रष्टव्य है। षट्खण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना / २४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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