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आगे वहाँ 'कितने स्थानों के द्वारा बांधता है इस द्वार में इतना मात्र अभिप्राय प्रकट किया गया है कि जीव राग और द्वेष इन दो स्थानों के द्वारा ज्ञानावरणीय आदि कर्मप्रकृतियों को बांधता है । उनमें माया और लोभ के भेद से दो प्रकार का राग तथा क्रोध और मान के भेद से द्वेष भी दो प्रकार का है । इन चार स्थानों के द्वारा सभी जीव कर्मप्रकृतियों को बांधते हैं। (सूत्र १६७०-७४)
यही स्थिति प्रायः अन्य पदों में भी रही है।
३. षट्खण्डागम में जो विषय का विवेचन है वह जीव की प्रमुखता से किया गया है। अजीव के विषय में जो कुछ भी वहाँ वर्णत हुआ है वह जीव से सम्बद्ध होने के कारण ही किया गया है। उदाहरणार्थ, पांचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार (पु० १४) में बन्धनीय के प्रसंग से तेईस प्रकार की परमाणुपुद्गल-वर्गणाओं की प्ररूपणा की गई है। वहीं इस अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया गया है कि वेदनात्मक पुद्गल हैं जो स्कन्धस्वरूप हैं और वे स्कन्ध वर्गणाओं से उत्पन्न होते हैं (सूत्र ५,६,६,८)। इस प्रकार से यहाँ पुदगलद्रव्यवर्गणाओं के निरूपण का प्रयोजन स्पष्ट कर दिया गया है। तत्पश्चात् वर्गणा के निरूपण में सोलह अनुयोगद्वारों का निर्देश करते हुए उनकी प्ररूपणा की गई है। उनमें भी औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरस्वरूप परिणत होने के योग्य परमाणुपुद्गलस्कन्धरूप आहारवर्गणा, तथा तेजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणा इन पांच ग्राह्य वर्गणाओं की विशेष विवक्षा रही है।
परन्तु प्रज्ञापना में 'जीवप्रज्ञापना' के साथ 'अजीवप्रज्ञापना' को भी स्वतन्त्र रूप में स्थान प्राप्त है (सूत्र ४-१३)। इसी प्रकार तीसरे 'बहुवक्तव्य' पद के अन्तर्गत २६ द्वारों में से २१वें द्वार में अस्तिकायों के अल्पबहुत्व (सूत्र २७०-७३) की, २३वें द्वार में सम्मिलित रूप से जीवपुद्गलों के अल्पबहुत्व (सूत्र २७५)की और २६वें पुद्गल-द्वार में क्षेत्रानुवाद और दिशानुवाद आदि के क्रम से पुद्गलों के भी अल्पबहुत्व (सूत्र ३२६-३३) की प्ररूपणा की गई है । पाँचवें 'विशेष' पद में अजीवपर्यायों (सूत्र ५००-५८) का तथा १०वें 'चरम' पद में लोक-अलोक का चरम-अचरम विभाग व अल्पबहुत्व का निरूपण है (सूत्र ७७४-८०६), इत्यादि ।
४. षट्खण्डागम में प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा प्रायः निक्षेप व नयों की योजनापूर्वक मार्गणाक्रम के अनुसार की गई है। साथ ही वहाँ विवक्षित विषय की प्ररूपणा के पूर्व उन अनुयोगद्वारों का भी निर्देश कर दिया गया है, जिनके आश्रय से उसकी प्ररूपणा वहाँ की जानेवाली है । इस प्रकार से वहाँ विवक्षित विषय की प्ररूपणा अतिशय व्यवस्थित, सुसंबद्ध एवं निर्दिष्ट क्रम के अनुसार ही रही है।
परन्तु प्रज्ञापना में प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा में इस प्रकार का कोई क्रम नहीं रहा है। वहाँ निक्षेप और नयों को कहीं कोई स्थान नहीं प्राप्त हुआ तथा मार्गणाक्रम का भी अभाव रहा है। इससे वहाँ विवक्षित विषय की प्ररूपणा योजनाबद्ध व्यवस्थित नहीं रह सकी है । वहाँ प्रायः प्रतिपाद्य विषय की चर्चा पाँच इन्द्रियों के आश्रय से की गई है। इसके लिए 'प्रज्ञापना' और 'स्थान' पदों को देखा जा सकता है ।
१. उनमें से अन्तिम १२ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा धवलाकार ने की है। देखिए पु० १४, पृ० १३४-२२३
षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / २४३
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