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________________ यह विचार वहां प्रमुखता से उसके प्रथम खण्ड जीवस्थान में सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में यथाक्रम से किया गया है। परन्तु प्रज्ञापना में आध्यात्मिक उत्कर्ष को लक्ष्य में रखकर उसका कुछ भी विचार नहीं किया गया। यहां तक कि उसमें गुणस्थान का कहीं नामोल्लेख भी नहीं है। २. जीव अनादि काल से कर्मबद्ध रहकर उसके उदयवश निरन्तर जन्म-मरण के कष्ट को सहता रहा है। वह कर्म को कब किस प्रकार से बांधता है, वह कर्म उदय में प्राप्त होकर किस प्रकार का फल देता है, तथा उसका उपशम व क्षय करके जीव किस प्रकार से मुक्ति प्राप्त करता है, इत्यादि का विशद विवेचन षट्खण्डागम में किया गया है।' प्रज्ञापना में यद्यपि कर्मप्रकृतिपद (२३), कर्मबन्धपद (२४), कर्मबन्धवेदपद (२५), कर्मवेदबन्धपद (२६), कर्मवेदवेदकपद (२७) और वेदनापद (३५) इन पदों में कर्म का विचार किया गया है; पर वह इतना संक्षिप्त, क्रमविहीन और दुरूह-सा है कि उससे लक्ष्य की पूर्ति कुछ असम्भव-सी दिखती है। उदाहरण के रूप में 'कर्मप्रकृति' (२३) पद को लिया जा सकता है । उसके अन्तर्गत दो उद्देशों में से प्रथम उद्देश में ये पांच द्वार हैं-(१) प्रकृतियां कितनी हैं, (२) जीव कैसे उन्हें बाँधता है, (३) कितने स्थानों के द्वारा उन्हें बांधता है, (४) कितनी प्रकृतियों का वेदन करता है और (५) किसका कितने प्रकार का अनुभव करता है। इन द्वारनामों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें कर्म के बन्ध आदि का पर्याप्त विचार किया गया होगा । पर ऐसा नहीं रहा। वहाँ जो थोड़ा-सा विचार किया गया है, विशेषकर मूलप्रकृतियों को लेकर, वह प्रायः अधूरा है। उससे कर्म की विविध अवस्थाओं पर-जैसे बन्ध, वेदन व उपशम-क्षयादि पर-कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। उदाहरणार्थ, 'कैसे बांधता है' इस द्वार को ले लीजिए ! इस द्वार में इतना मात्र विचार किया गया है "कहण्णं भंते ! जीवे अट्ट पयडीओ बंधइ ? गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्जं कम्मं णियच्छति, दरिसणावरणिज्जस्स कमस्स उदएणं दसणमोहणिज्जं कम्म णियच्छति, दंसणमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छति, मिच्छत्तेणं उदिण्णेणं गोयमा ! एवं खलु जीवे अट्ठ कम्मपयडीओ बंधइ ।" --सूत्र १६६७ 'कहण्णं भंते ! णेरइए अट्रकम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! एवं चेव । एवं जाव वेमाणिए ।" -सूत्र १६६८ १. कर्मबन्ध का विचार बन्धस्वामित्वविचय (पू० ८) में व उसके वेदना का विचार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि के आश्रय से 'वेदना' अनुयोगद्वार में विविध अधिकारों द्वारा किया गया है। इसके अतिरिक्त बन्ध, बन्धक, बन्धनीय व बन्धनीयविधान का विचार 'बन्धन' अनुयोगद्वार (पु० १४) एवं महाबन्ध (सम्पूर्ण ७ जिल्दों) में विस्तार से किया गया है। २. कर्म की इन विविध अवस्थाओं के विवेचन के लिए शिवशर्म सूरि विरचित कर्मप्रकृति द्रष्टव्य है। ३. प्रज्ञापनागत इस कर्म के विवेचन को गुजराती प्रस्तावना (पृ० १३१ व १३२ तथा पछि के पृ० १२५-२६) में प्राचीन स्तर का बतलाया गया है, पर उस पर विशेष प्रकाश कुछ नहीं डाला गया है कि किस प्रकार वह प्राचीन स्तर का है । २४२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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