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________________ हैं । उसमें गति के क्रम से जीव किस गति से निकलकर किन गतियों में जाता है और वहाँ उत्पन्न होकर वह किन-किन गुणों को प्राप्त करता है, इसका विस्तार से विशद विचार किया गया है । प्रज्ञापना में उसका विचार बीसवें 'अन्तःक्रिया' पद के अन्तर्गत उद्वर्तन (४), तीर्थंकर (५.), चक्री ( ६ ), बलदेव (७), वासुदेव ( ८ ), माण्डलिक (E) और रत्न (१०) इन द्वारों में पृथक्-पृथक् किया गया है । इस स्थिति में यद्यपि दोनों ग्रन्थों में यथाक्रम से समानता तो नहीं दिखेगी, पर आगे-पीछे उस प्ररूपणा में अभिप्राय समान अवश्य दिखेगा। इसके लिए उदाहरण ० ख० में उक्त आगति का विचार अन्तर्गत भेदों के साथ यथाक्रम से नरकादि गतियों में किया गया है । यहाँ हम चतुर्थ पृथिवी से निकलते हुए मिथ्यादृष्टि नारकी का उदाहरण ले लेते हैं । उसके विषय में वहाँ कहा गया है कि वह उस पृथिवी से निकलकर तिर्यंच और मनुष्य इन दो गतियों में जाता है। यदि वह तियंच गति में जाता है तो गर्भोपक्रान्तिक, संज्ञी, पंचेन्द्रिय व पर्याप्त तिर्यंचों में उत्पन्न होकर आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक्त्व और संयमासंयम इन छह को उत्पन्न कर सकता है । (सूत्र १, ६-६,७६८२ और १,६-६,२१३-१५) 'यदि वह मनुष्यगति में जाता है तो वहाँ गर्भोपान्तिक संख्यातवर्षायुष्क पर्याप्त मनुष्य होकर श्राfभfनबोधिक आदि पाँच ज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम इन नौ को उत्पन्न करता हुआ मुक्ति को भी प्राप्त कर सकता है । परन्तु वह उस पृथिवी से निकलकर बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती और तीर्थंकर नहीं हो सकता है ।' ( सूत्र १,६-६, ८३ ८५ और १, ६-६,२१६) प्रज्ञापना में यह अभिप्राय सूत्र १४२० [१८], १४२१ [१५] और १४४४-४६ में व्यक्त किया गया है । इस प्रसंग में समान परम्परा से आनेवाले इन शब्दों का उपयोग भी देखने योग्य है"के इमंतयडा होदूण सिज्यंति, बुज्झंति, मुच्चंति, परिणव्वाणयंति, सव्वदुक्खाणमंतं परिविजाणंति ।" - षट्खण्डागम सूत्र १, ६ - ६, २१६ व २२० आदि “जे णं भंते ! केवलणाणं उप्पाडेज्जा से णं सिज्झेज्झा, बुज्झेज्झा, मुच्चेज्जा, सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा ? गोयमा ! सिज्झेज्झा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा ।" - प्रज्ञापना सूत्र १४२१ [५] विशेषता इस प्रकार एक समान मौलिक परम्परा पर आधारित होने से दोनों ग्रन्थों में जहाँ सैद्धान्तिक विषयों के विवेचन व उनकी रचनापद्धति में समानता रही है वहाँ उनमें अपनी-अपनी अपरिहार्य कुछ विशेषता भी दृष्टिगोचर होती है । यथा १. षट्खण्डागम के रचयिताओं का प्रमुख ध्येय आत्महितैषी जीवों को आध्यात्मिकता की ओर आकृष्ट करके उन्हें मोक्षमार्ग में अग्रसर करना रहा है । इसीलिए उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ में आध्यात्मिक पद पर प्रतिष्ठित होने के लिए उसके सोपानस्वरूप चौदह गुणस्थानों का विचार गति - इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से क्रमबद्ध व अतिशय व्यवस्थित रूप में किया है । षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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