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आदि शुभ अवसर पर भी आहारक शरीर से अन्य क्षेत्र में जाते हैं। .
तात्पर्य यह है कि जो साधु विक्रियाऋद्धि से रहित होकर आहारक-ऋद्धि से सम्पन्न होते हैं वे अवधिज्ञान से, श्रुतज्ञान से अथवा देवों के आगमन से केव नज्ञान की उत्पत्ति जानकर, 'हम वन्दना की भावना से जाते हैं। ऐसा विचारकर आहारकशरीर से परिणत होते हुए उस स्थान को जाते हैं और उन केवलियों तथा अन्य जिनों व जिनालयों की वन्दना करके वापस आ जाते हैं।' _ 'सर्वार्थसिद्धि' और 'तत्त्वार्थवार्तिक' में प्रकृत आहारक शरीर-निर्वर्तन का प्रयोजन कदाचित् ऋद्धिविशेष के सद्भाव का ज्ञापन, कदाचित् सूक्ष्म पदार्थ का निर्णर और कदाचित् संयम का परिपालन निर्दिष्ट किया गया है। 'तत्त्वार्थवातिक' में 'सर्वार्थसिद्धि' से इतना विशेष कहा गया है कि भरत और ऐरावत क्षेत्र में केवली का अभाव होने पर जिसे संशय उत्पन्न हुआ है, वह उत्पन्न हुए उस संशय के विषय में निर्णय के लिए महाविदेहों में जाने का इच्छुक होकर, 'औदारिकशरीर से जाने पर मेरे लिए महान असंयम होने वाला है', इस सद्भावना से वह आहारकशरीर को उत्पन्न करता है।'
इसी प्रसंग में आगे धवला में सूत्रोक्त नामनिरुक्ति के विषय में स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि सूत्र (५,६,२३६) में प्रयुक्त 'णिउण' का अर्थ निपुण, श्लक्ष्ण व मृदु है । 'णिण्णा' या "णिण्हा' का अर्थ धवल, सुगन्धित और अतिशय सुन्दर है। 'अप्रतिहत' का अर्थ सूक्ष्म है। तदनुसार आहारवर्गणाद्रव्यों के मध्य में जो स्कन्ध निपुणतर व पिण्णदर (अतिशय निष्णात) होते हैं, उनका चूंकि उस शरीर के निमित्त आहरण या ग्रहण किया जाता है, इसलिए उसका 'आहारक' यह सार्थक नाम है (पु० १४, पृ० ३८६)।
तेजस-शरीर
उपर्युक्त नामनिरुक्ति के प्रसंग में सूत्रकार ने तेजःप्रभागुण-युक्त शरीर को तैजस शरीर कहा है । (सूत्र ५,६,२४०) ___इसकी व्याख्या में धवलाकार ने शरीरस्कन्ध के पद्मराग मणि के समान वर्ण को तेज और शरीर से निकलने वाली किरणकला को प्रभा कहकर उसमें होने वाले शरीर को तेजसशरीर कहा है। वह निःसरणात्मक और अनिःसरणात्मक से भेद के दो प्रकार का है। इन में निःसरणात्मक तैजस शरीर भी शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का है। इनमें उत्कृष्ट चारित्रवाले दयालु संयत के उसकी इच्छानुसार जो हंस व शंख के समान वर्ण वाला तेजस शरीर दाहिने कन्धे से निकलकर, मारी, व्याधि, वेदना, दुभिक्ष व उपसर्ग आदि के शान्त करने में समर्थ होता है और जो समस्त जीवों को व उस संयत को भी सुख उत्पन्न करता है, वह निःसरणात्मक शुभ तेजसशरीर कहलाता है ।
१. धवला, पु० १४, पृ० ३२६-३७ २. कदाचिल्लब्धिविशेषसद्भावज्ञापनार्थ, कदाचित् सूक्ष्मपदार्थनिर्धारणार्थं संयमपरिपालनार्थ
च भरतरावतेषु केवलिविरहे जातसंशयस्तन्निर्णयार्थ महाविदेहेषु केवलिसकाश जिगमिषरौदारिकेण मे महान् संयमो भवतीति विद्वानाहारकं निवर्तयति। त०वा० २,४६,४; तुलना के लिए नामनिरुक्ति से सम्बन्धित इसके पूर्व २,३६,६ का सन्दर्भ द्रष्टव्य है।
षट्समागम पर टीकाएँ | ५३१
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