________________
उनका जन्म हआ। उनका दूसरा नाम श्यामाचार्य था। दसरा गर्दभिल्ल का उच्छेदक कालक वीरनिर्वाण सं० ४५३ (विक्रम पूर्व १७) में हुआ और तीसरा वीरनि० सं० ६६३ (वि० सं० ५२३) में हुआ। इनमें प्रथम कालक ही श्यामाचार्य हैं, जिन्होंने प्रज्ञापना की रचना की है।'
उनमें 'कालक' और 'श्याम' इन समानार्थक शब्दों के आश्रय से जो कालकाचार्य और श्यामाचार्य को अभिन्न दिखलाया गया है वह काल्पनिक ही है, इसके लिए ठोस प्रमाण कुछ भी नहीं दिया गया है। __ दूसरे, इन पट्टावलियों का लेखनकाल भी अनिश्चित है । इसके अतिरिक्त उनमें परस्पर विरोध भी है। इस प्रकार परम्परा के आधार से निगोदव्याख्याता कालकाचार्य को ही श्यामाचार्य मानकर उनके द्वारा विरचित प्रज्ञापना का रचनाकाल वीरनिर्वाण सं० ३३५-७६ (विक्रमपूर्व १३५-६४ व ईसवी पूर्व ७६-३८) मानना संगत नहीं माना जा सकता। उपसंहार
षट्खण्डागम और प्रज्ञापना ये दोनों सैद्धान्तिक ग्रन्थ हैं, जो समान मौलिक श्रुत की परम्परा के आधार से रचे गये हैं । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय यह स्वीकार करते हैं कि भगवान् महावीर अर्थश्रुत के प्रणेता और गौतमादि गणधर ग्रन्थश्रुत के प्रणेता रहे हैं।'
इस प्रकार समान मौलिक परम्परा पर आधारित होने से प्रस्तुत दोनों ग्रन्थों में रचनाशैली, विषयविवेचन की पद्धति और पारिभाषिक शब्दों आदि की समानता का रहना अनिवार्य है। इतना ही नहीं, परम्परागत उस मौलिक श्रुत के आधार से मौखिक रूप में आनेवाली कितनी ही ऐसी गाथाएँ हैं जो दोनों ही ग्रन्थों में यथाप्रसंग समान रूप में देखी जाती हैं। इतना विशेष है कि षट्खण्डागम की अपेक्षा प्रज्ञापना में वे अधिक हैं। उनमें कुछ भाष्यात्मक गाथाएँ भी हैं, जो सम्भवतः ग्रन्थ में पीछे जोड़ी गई हैं। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में अनेक समानताओं के होने पर भी उनकी कुछ अपनी अलग विशेषताएँ भी हैं जैसे
(१) प्रज्ञापना के प्रारम्भ में मंगल के पश्चात् यह स्पष्ट कहा गया है कि भगवान् जिनेन्द्र ने मुमुक्षुजनों को मोक्षप्राप्ति के निमित्त प्रज्ञापना का उपदेश किया था। परन्तु वर्तमान प्रज्ञापना ग्रन्थ में उस मोक्ष की प्राप्ति को लक्ष्य में नहीं रखा गया दिखता । कारण यह है कि मोक्षप्राप्ति के उपायभूत जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं उनका उत्कर्ष गुणस्थानक्रम के अनुसार होता है । परन्तु प्रज्ञापना में उन गुणस्थानों का कहीं कोई विचार नहीं किया गया। इतना ही नहीं, गुणस्थान का तो वहाँ नाम भी दृष्टिगोचर नहीं होता। ___ इसके विपरीत षट्खण्डागम में, विशेषकर उसके प्रथम खण्ड जीवस्थान में, मिथ्यात्वादि चौदह गुणस्थानों का यथायोग्य गति- इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से पर्याप्त विचार
१. गुजराती प्रस्तावना पृ० २२-२३ २. परम्परा के अनुसार कालकाचार्य को निगोद का व्याख्याता माना जाता है । प्रकृत प्रज्ञापना
(सूत्र ५४-५५, गाथा ४७-१०६) में निगोद (साधारणकाय) की विस्तृत प्ररूपणा की गई है । इसी आधार से समानार्थक नामों के कारण सम्भवतः प्रथम कालक और श्यामाचार्य
को अभिन्न मान लिया गया है, जिसके लिए अन्य कोई प्रमाण नहीं है। ३. धवला पु० १, पृ० ६०-६१ व ६४-६५ तथा आव०नि० ६२
षटखण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना | २५७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org