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________________ करण किया गया है । आचार्य पूज्यपाद अद्वितीय वैयाकरण रहे हैं। उनका 'जैनेन्द्र व्याकरण' सुप्रसिद्ध है। साथ ही वे सिद्धान्त के मर्मज्ञ भी रहे हैं। उनके समक्ष प्रस्तुत षट्खण्डागम रहा है और उन्होंने इस सर्वार्थसिद्धि की रचना में उसका भरपूर उपयोग किया है। तत्त्वार्थसूत्र के 'सत्संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-कालान्तर-भावाल्प-बहुत्वैश्च' इस सूत्र (१-८) की जो उन्होंने विस्तृत व्याख्या की है उसका आधार यह षट्खण्डागम ही रहा है। १० ख० के प्रथम खण्ड जीवस्थान में जिस पद्धति से क्रमशः सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणानुगम आदि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणास्थानों में जीवों की विविध अवस्थाओं की प्ररूपणा की गई है, ठीक उसी पद्धति से सर्वार्थसिद्धि में उपर्युक्त सूत्र की व्याख्या करते हुए आ० पूज्यपादने यथाक्रम से उन्हीं आठ अनुयोगद्वारों में उन गुणस्थानों और मार्गणाओं के आश्रय से जीवों की प्ररूपणा की है। उदाहरण के रूप में इन दोनों ग्रन्थों के कुछ प्रसंगों को उद्धत किया जाता है, जो न केवल शब्दसन्दर्भ से ही समान हैं प्रत्युक्त उन प्रसंगों से सम्बद्ध सर्वार्थसिद्धि का बहुत-सा सन्दर्भ तो ष० ख० के सूत्रों का छायानुवाद जैसा दिखता है । यथा (१) ष० ख० में सर्वप्रथम गुणस्थानों की प्ररूपणा में प्रयोजनीभूत होने से चौदह मार्गणास्थानों के जान लेने की प्रेरणा इस प्रकार की गई है "एत्तो इमेसि चोद्दसण्हं जीवसमासाणं मग्गणट्ठदाए तत्थ इमाणि चोद्दस चेव ट्ठाणाणि णायव्वाणि भवंति । तं जहा । गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्सा भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि ।"-१० ख० सूत्र १,१,२-४ (पु० १)। सर्वार्थसिद्धि में इसी प्रसंग को देखिए जो शब्दश: समान है "एतेषामेव जीवसमासानां निरूपणार्थ चतुर्दश मार्गणास्थानानि ज्ञेयाणि । गतीन्द्रिय-काययोग-वेद-कषाय-ज्ञान-संयम-दर्शन-लेश्या-भव्य-सम्यक्त्व-संज्ञाऽऽहारका इति ।" –स०सि०, पृ० १४ १. सत्प्ररूपणा ___ "संतपरूवणदाए दुविहो णिद्देसो ओघेण य आदेसेण य । ओघेण अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी....सजोगकेवली अजोगकेवली चेदि।"-१०ख० सूत्र १,१,८-२३ __ "तत्र सत्प्ररूपणा द्विविधा सामान्येन विशेषेण च ।' सामान्येन तावत् अस्ति मिथ्या दृष्टिः । अस्ति सासादनसम्यग्दृष्टिरित्येवमादि ।" -- स०सि०, पृ० १४ गतिमार्गणा "आदेसेण गदियाणुवादेण अत्थि णिरयगदी तिरिक्खगदी मणुस्सगदी देवगदी सिद्धगदी चेदि । रइया चउट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति। तिरिक्खा पंचसु हाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्टि सम्मामिच्छाइट्ठी असंजद १. ओघ और सामान्य तथा आदेश और विशेष ये समानार्थक शब्द हैं । यथा--'ओपेन सामा न्येनाभेदेन प्ररूपणमेकः । अपरः आदेशेन भेदेन विशेषेण प्ररूपण मिति ।' धवला पु० १, पृ० १६० २. चौदह गुणस्थानों का उल्लेख यहीं पर इसके पूर्व किया जा चुका है। -पृ० १४ १६८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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