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________________ शिवशर्म-विरचित कर्मप्रकृति में एक उपशामनाविषयक स्वतन्त्र अधिकार है। उसमें भी उपशामना के उपर्युक्त भेदों का निर्देश किया गया है । जैसी कि टीकाकार मलयगिरि सरि ने सचना की है, अकरणोपशामना का अनुयोग विच्छिन्न हो चुका था। इसी से शिवशर्मसूरि ने उस अनयोग के पारगामियों को मंगल के रूप में नमस्कार किया है व तद्विषयक ज्ञान के न रहने से स्वयं उसकी कुछ प्ररूपणा नहीं की है-यह पूर्व में कहा ही जा चुका है। ४. करणाणिओगसुत्त-यह कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ रहा है या लोकानुयोग के किसी प्रसंग से सम्बद्ध है, यह अन्वेषणीय है। प्रकृत में इसका उल्लेख धवलाकार ने क्षेत्रानुगम के प्रसंग में मिथ्यादृष्टियों के क्षेत्रप्रमाण की प्ररूपणा करते हुए किया है। वहाँ सूत्र में मिथ्यादृष्टियों का क्षेत्र सर्वलोक निर्दिष्ट किया गया है। उसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने सूत्र में निर्दिष्ट लोक को सात राजुओं के घन (७४७४७-३४३) स्वरूप ग्रहण किया है। पूर्व मान्यता के अनुसार, लोक नीचे सात राज, मध्य में एक राजु, ब्रह्मकल्प के पार्श्व भागों में पांच राजु और ऊपर एक राजु विस्तृत सर्वत्र गोलाकार रहा है। इस मान्यता के अनुसार सूत्र (२,३,४) में जो लोकपूरण समुद्घातगत केवली का क्षेत्र सर्वलोक कहा गया है वह घटित नहीं होता। इसलिए धवलाकार ने लोक को गोलाकार न मानकर आयत चतुरस्र के रूप में उत्तर-दक्षिण में सर्वत्र सात राजु बाहल्यवाला माना है। इस मान्यता के अनुसार वह गणितप्रक्रिया के आधार पर ३४३ घनराज प्रमाण बन जाता है। ____ इस प्रसंग में शंकाकार ने आ० वीरसेन के द्वारा प्रतिष्ठापित उक्त लोकप्रमाण के विरुद्ध जो तीन सूत्रों की अप्रमाणता का प्रसंग उपस्थित किया था, उसका निराकरण करते हुए धवलाकार ने अपनी उक्त मान्यता में उन गाथासूत्रों के साथ संगति बैठायी है । आगे उन्होंने इस प्रसंग में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि हमने जो लोक का बाहल्य उत्तर-दक्षिण में सर्वत्र सात राजु माना है, वह करणाणिओगसुत्त के विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि वहाँ उसके विधि और प्रतिषेध का अभाव है।' ५. कसायपाहुड-गुणधराचार्य-विरचित कसायपाहुडसुत्त आचार्य यतिवृषभ-विरचित चूर्णिसूत्रों के साथ 'श्री वीरशासनसंघ, कलकत्ता' से प्रकाशित हो चुका है। प्रकत में धवलाकार ने यद्यपि कुछ प्रसंगों पर उसके कुछ मूल गाथासूत्रों को भी धवला में उद्धृत किया है, फिर भी अधिकतर उन्होंने उसके ऊपर यतिवृषभाचार्य-विरचित चूणि का उल्लेख कहीं पर कसायपाहड के नाम से, कहीं पर चुण्णिसुत्त के नाम से, कहीं पाहुडसुत्त के नाम से और कहीं पाहुडचुण्णिसुत्त के नाम से भी किया है । जैसे (१) सत्प्ररूपणा में मनुष्यों में चौदह गुणस्थानों के सद्भाव के प्ररूपक सूत्र (१,१,२७) की व्याख्या करते हुए धवला में उपशामनाविधि और क्षपणाविधि की प्ररूपणा की गयी है । उस प्रसंग में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में तीन स्त्यानगृद्धि आदि सोलह प्रकृतियों और अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण इन आठ कषायों का क्षय आगे-पीछे कब होता है, इस विषय में धवलाकार ने दो भिन्न उपदेशों का उल्लेख किया है। उनमें सत्कर्मप्राभूत के उपदेशानुसार १. इस सबके लिए देखिए धवला, पु० ४, पृ० १०-२२ ५७४ | षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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