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________________ अनिवृत्तिकरणकाल का संख्यातवाँ भाग शेष रह जाने पर स्त्यानगद्धि आदि तीन, नरकगति, तियंचगति, एकेन्द्रिय आदि चार जातियाँ, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों का क्षय किया जाता है। तत्पश्चात अन्तर्महर्त जाकर प्रत्याख्यानावरण चार और अप्रत्याख्यानावरण चार इन आठ कषायों का क्षय किया जाता है। दूसरे कषायप्राभत के उपदेशानुसार उक्त आठ कषायों का क्षय हो जाने पर, तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर स्त्यानगृद्धि आदि उन सोलह कर्मप्रकृतियों का क्षय किया जाता है (पु० १, पृ० २१७)। कसायपाहड के नाम पर धवला में जो उपर्युक्त अभिप्राय प्रकट किया गया है, वह उसी प्रकार से कसायपाहुड पर निर्मित चूणि में उपलब्ध होता है।' (२) क्षुद्रक-बन्ध में अन्तरानुगम के प्रसंग में सूत्रकार द्वारा सासादनसम्यग्दष्टियों का जघन्य अन्तर पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग निर्दिष्ट किया गया है। उसके स्पष्टीकरण के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गई है कि उपशमणि से पतित होता हुआ सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त में यदि पुनः उपशम श्रेणि पर आरूढ़ होता है और उससे पतित होकर फिर से यदि सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है तो इस प्रकार से उस सासादन सम्यक्त्व का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। उसकी प्ररूपणा यहाँ सूत्रकार ने क्यों नहीं की। उपशम श्रेणि से उतरते हुए उपशमसम्यग्दृष्टि सासादन गुणस्थान को न प्राप्त होते हों, ऐसा तो कुछ नियम है नहीं, क्योंकि 'आसाणं पि गच्छेज्ज' अर्थात् वह सासादनगुणस्थान को भी प्राप्त हो सकता है, ऐसा चूणिसूत्र देखा जाता है। ___इसके पूर्व जीवस्थान-चूलिका में उपशमणि से प्रतिपतन के विधान के प्रसंग में भी यह विचार किया गया है। वहाँ धवला में यह स्पष्ट किया गया है कि उपशमकाल के भीतर जीव असंयम को भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयम को भी हो सकता है तथा छह आवलियों के शेष रह जाने पर सासादन को भी प्राप्त हो सकता है। पर सासादन को प्राप्त होकर यदि वह मरण को प्राप्त होता है तो नरक, तिथंच और मनुष्य इन तीन गतियों में से किसी में भी नहीं जाता है--किन्तु तब वह नियम से देवगति को प्राप्त होता है । यह प्राभूतणि सूत्र का अभिप्राय है । भूतबलि भगवान् के उपदेशानुसार उपशम श्रेणि से उतरता हुआ सासादन गुणस्थान को नहीं प्राप्त होता है । कारण यह कि तीन आयुओं में से किसी एक के बंध जाने पर वह कषायों को नहीं उपशमा सकता है। इसीलिए वह नरक, तिर्यंच और मनुष्य गति को नहीं प्राप्त होता है। (३) बन्धस्वामित्वविचय में संज्वलन मान और माया के बन्धव्युच्छेद के प्रसंग में धवला में प्ररूपित उन बन्धव्युच्छित्ति के क्रम के विषय में यह शंका उठायी गई है कि इस प्रकार का यह व्याख्यान 'कषायप्राभृतसूत्र' के विरुद्ध जाता है । इसके समाधान में धवलाकार ने यह स्पष्ट १. देखिए क०पा० सुत्त, पृ० ७५१ में चूणि १६५-६६ २. देखिए धवला पु० ७, पृ० २३३ तथा कषायप्राभूत चूणि का वह प्रसंग-छसु आवलियासु सेसासु आसाणं पि गच्छेज्ज । -- के०पा० सुत्त, पृ० ७२६-२७; चूणिसूत्र ५४३ ३. देखिए धवला पु० ६, पृ० ३३१ तथा क पा० सुत्त पृ० ७२६-२७, चूणि ५४२-४६ । दोनों ग्रन्थगत यह सन्दर्भ प्रायः शब्दशः समान है (क० प्रा० चूणि में मात्र 'संजमासंजमंपि गच्छेज्ज' के आगे 'दो वि गच्छेज्ज' इतना पाठ अधिक उपलब्ध होता है।) ग्रन्थोल्लेख / ५७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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