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उच्चारणाचार्यों में एक 'वप्पदेव" नामक आचार्य भी हुए हैं, जिन्होंने कसायपाहुड के चूर्णिसूत्रों पर बारह हजार श्लोक-प्रमाण उच्चारणावृत्ति लिखी है । इस उच्चारणावृत्ति का एक उल्लेख जयधवला में इस प्रकार किया गया है
"चुण्णिसुत्तम्मि वप्पदेवाइरियलिहिदुच्चारणाए च अंतोमुहुत्तमिदि भणिदो । अम्हेहि लिहिदुच्चारणाए पुण जहण्णेण एगसमओ उक्कस्सेण संखेज्जा समया इदि परुविदो ।"
धवला में वेदनाद्रव्यविधान के प्रसंग में तीव्र संक्लेश को विलोम प्रदेशविन्यास का कारण और मन्दसंक्लेश को अनुलोमप्रदेशविन्यास का कारण बतलाते हुए उस उच्चारणाचार्य का अभिप्राय निर्दिष्ट किया गया है ।
इसी प्रसंग में आगे वहाँ भूतबलिपाद के अभिप्राय को प्रकट करते हुए कहा गया है कि उनके अभिमतानुसार विलोमविन्यास का कारण गुणितकर्माशिकत्व और अनुलोमविन्यास का कारण क्षपितकर्माशिकत्व है, न कि संक्लेश और विशुद्धि ।
यहीं पर आगे एक शंका के रूप में कहा गया है कि उच्चारणा के समान भुजाकार काल के भीतर ही गुणितत्व को क्यों नहीं कहा जाता है। इसके समाधान में कहा गया है कि ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि अल्पतर काल की अपेक्षा गुणितभुजाकार काल बहुत है, इस उपदेश का श्रालम्बन लेकर यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है ( पु० १० पृ० ४५) ।
३. कर्मप्रवाद – उपक्रम अनुयोगद्वार के अन्तर्गत उपशामना के प्रसंग में उसके भेद-प्रभेदों का निर्देश करते हुए धवलाकार ने यह सूचना की है कि अकरणोपशामना की प्ररूपणा कर्मप्रवाद में विस्तार से की गयी है ( पु० १५, पृ० २७५) ।
इसी प्रकार की सूचना कषायप्राभृतचूर्णि में भी की गयी है । उसे स्पष्ट करते हुए जयधवला में तो आठवें पूर्वस्वरूप कर्मप्रवाद में देख लेने की भी प्रेरणा की गयी है। *
जैसा कि धवला और जयधवला में प्ररूपित 'श्रुतावतार' से स्पष्ट है, आचार्य धरसेन और गुणधर के पूर्व ही अंगश्रुत लुप्त हो चुका था, उसका एक देश ही आचार्य-परम्परा से आता हुआ धरसेन और गुणधर को प्राप्त हुआ था । ऐसी परिस्थिति में यह विचारणीय है कि जयधवलाकार के समक्ष क्या कर्मप्रवाद का कोई संक्षिप्त रूप रहा है, जिसमें उन्होंने उस अकरणोपशामना के देख लेने की प्रेरणा की है। दूसरा एक यह भी प्रश्न उठता है कि यदि उनके सामने वह कर्मप्रवाद रहा है तो उन्होंने उसके आश्रय से स्वयं ही उस उपशामना की प्ररूपणा क्यों नहीं की । धवलाकार ने तो देशामर्शक सूत्रों के आधार पर धवला में अनेक गम्भीर विषयों की प्ररूपणा विस्तार से की है ।
१. ष०ख० के प्रथम पाँच खण्डों व कषायप्राभृत पर वप्पदेवगुरु द्वारा लिखी गयी प्राकृत भाषा रूप साठ हजार ग्रन्थप्रमाण पुरातन व्याख्या का तथा महाबन्ध के ऊपर लिखी आठ हजार ग्रन्थप्रमाण व्याख्या का उल्लेख इन्द्रनन्दिश्रुतावतार (१७१ - ७६ ) में किया गया है। २. धवला, पु० १०, पृ० ४४
३. जा सा अकरणोवसामणा तिस्से दुवे णामधेयाणि अकरणोवसामणात्ति वि अणुदिण्णोवसामणातिवि । एसा कम्मपवादे । - क० पा० सुत्त, पृ० ७०७ ( चूर्णि ३०० - १) ४. कम्मपवादो णाम अट्टमो पुव्वाहियारो .....तत्थ एसा अकरणोवसामणा दट्ठव्वा, तत्थेदिस्से पबंधेण परूवणोवलंभादो । -- जयध० (क०पा० सुत्त, पृ० ७०७ का टिप्पण १ )
ग्रन्थोल्लेख / ५७३
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