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उसमें वे पारंगत भी रहे हैं । उस पूर्ववर्ती साहित्य का उन्होंने अपनी धवला और जयधवला टीकाओं की रचना में पर्याप्त उपयोग किया है। उदाहरणस्वरूप उन्होंने इन टीकाओं में नामो. ल्लेखपूर्वक कसायपाहुड, तत्त्वार्थसूत्र, पंचास्तिकाय और सन्मतिसूत्र आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों से प्रसंग के अनुरूप गाथाओं को व सूत्र को लेकर उद्धत किया है, यह स्पष्ट हो चुका है।
। परन्तु उन्होंने कहीं प्रस्तुत पंचसंग्रह का उल्लेख नहीं किया। धवला से पूर्ववर्ती किसी अन्य ग्रन्थ में भी उसका उल्लेख देखने में नहीं आया। इससे यही निश्चित होता है कि प्रस्तुत पंचसंग्रह इस रूप में धवलाकार के समक्ष नहीं रहा । पंचसंग्रह के अन्य प्रकरणों से भी धवला की समानता
प्रस्तुत पंचसंग्रह का तीसरा प्रकरण 'कर्मस्तव' है। उसकी चूलिका में क्या बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, क्या उदय पूर्व में व्युच्छिन्न होता है और क्या दोनों साथ-साथ व्युच्छिन्न होते हैं; इन तीन प्रश्नों को प्रथम उठाया गया है । इसी प्रकार आगे स्वोदय, परोदय व स्व-परोदय तथा सान्तर, निरन्तर व सान्तर-निरन्तर बन्ध के विषय में भी तीन-तीन प्रश्न उठाए गये हैं। इस प्रकार नौ प्रश्नों को उठाकर उनके विवरण की प्रतिज्ञा की गई है।'
षट्खण्डागम के तीसरे खण्ड 'बन्धस्वामित्वविचय' में 'पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्त राय इनका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है' इस पृच्छासूत्र (५) की व्याख्या करते हए धवलाकार ने उसे देशामर्शक कहकर उससे सूचित 'क्या बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, क्या उदय पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, क्या दोनों एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं' इत्यादि २३ प्रश्नों को उस पृच्छासूत्र के अन्तर्गत बतलाया है। इन २३ प्रश्नों में उपर्युक्त पंचसंग्रह में निर्दिष्ट वे ६ प्रश्न सम्मिलित है।
ठीक इसके अनन्तर धवला में 'एत्थुवउज्जतीओ आरिसगाहाओ' ऐसी सूचना करते हुए चार गाथाओं को उद्धृत किया है। उनमें भूमिकास्वरूप यह प्रथम गाथा है.----.
बंधो बन्धविही पुण सामित्तद्धाण पच्चयविही य।
एदे पंचणिओगा मग्गणठाणेसु मग्गेज्जा ।। --पु० ८, पृ०८ इस गाथा में जिस प्रकार से बन्ध, बन्धविधि, स्वामित्व, बन्धाध्वान और प्रत्ययविधि इन पांच अनुयोगद्वारों के मार्गणास्थानों में अन्वेषण की सूचना की गई है, तदनुसार ही धवला में उपर्युक्त २३ प्रश्नों के अन्तर्गत यहाँ और आगे इस खण्ड के सभी सूत्रों की व्याख्या में उन बन्ध ब बन्धविधि आदि पाँच का विचार किया गया है।
यहाँ यह अनुमान किया जा सकता है कि उपर्युक्त गाथा में जिन बन्ध व बन्धविधि आदि पांच के अन्वेषण की प्रेरणा की गई है उनका प्ररूपक कोई प्राचीन आर्ष ग्रन्थ धवलाकार के समक्ष रहा है, जहाँ सम्भवतः उन पांचों की विस्तार से प्ररूपणा की गई होगी।
१. छिज्जइ पढमो बंधो कि उदओ कि च दो वि जगवं किं ।
कि सोदएण बंधो किंवा अण्णोदएण उभएण ||३-६५।। संतर णिरतरो वा किं वा बंधो हवेज्ज उभयं वा ! एवं णवविहपण्हं कमसो योच्छामि एयं तु ॥३-६६।।
ये ही नो बन्धविषयक प्रश्न गो० कर्मकाण्ड में भी उठाये गये है। (गाथा ३६६)
२६४ / पट्ण्डागम-परिशीलन
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