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________________ गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उनमें क्रम से यथासम्भव जीवस्थानों-चौदह जीवसमासों और गुणस्थानों के सद्भाव को प्रकट किया गया है।' यथा____..."तान्येतानि चतुर्दशमार्गणास्थानानि, तेषु जीवस्थानानां सत्ता विचिन्त्यते--तिर्यग्गतो चतुर्दशापि जीवस्थानानि सन्ति । इतरासु तिसृषु द्वे द्वे पर्याप्तकापर्याप्तकभेदात् । एकेन्द्रियेषु चत्वारि जीवस्थानानि । विकलेन्द्रियेषु द्वे द्वे । पञ्चेन्द्रियेषु चत्वारः।" (त० वा० ६,७,१२ पृ० ३३०) ०ख० में जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत 'सत्प्ररूपणा' अनुयोगद्वार में यथाप्रसग गुणस्थान और मार्गणास्थानों के क्रम से उस सबका विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। धवलाकार ने तो सत्प्ररूपणा के अन्तर्गत समस्त (१७७) सूत्रों की व्याख्या को समाप्त करके तत्पश्चात् 'संपहि संतसुत्तविवरणसमत्ताणंतरं तेसिं परूवणं भणिस्सामो' ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए यथाक्रम से गुणस्थानों और मार्गणास्थानों के आश्रय से केवल जीवस्थानों (जीव समासों) की ही नहीं, गुणस्थान व जीवसमास आदि रूप बीस प्ररूपणाओं की विवेचना बहुत विस्तार से की है। यह सब १० ख० की पु० २ में प्रकाशित है। उपसंहार ___ ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो चुका है कि तत्त्वार्थवार्तिक के रचियता आ० अकलंकदेव के समक्ष प्रस्तुत षट्खण्डागम रहा है और उन्होंने उसकी रचना में यथाप्रसग उसका यथेष्ट उपयोग भी किया है । कहीं-कहीं पर उन्होंने उसके सूत्रों को संस्कृत रूपान्तर में उद्धृत करते हुए उसके खण्डविशेष, अनुयोगद्वार और प्रसंगविशेष का भी निर्देश कर दिया है। जैसेजीवस्थान (प्रथम खण्ड), वर्गणा (पाँचवाँ खण्ड), सत्प्ररूपणा. कायानुवाद (कायमार्गणा), योगभंग (योगमार्गणा) और बन्धविधान आदि। __ जैसाकि पीछे 'सर्वार्थसिद्धि' के प्रसंग में स्पष्ट किया जा चुका है, ष०ख० में विवक्षित विषय की प्ररूपणा प्रश्नोत्तर शैली में करते हुए उससे सम्बद्ध सूत्रवाक्यों का उल्लेख पुनः पुनः किया गया है । इस प्रकार की पुनरुक्ति इस त० वा० में नहीं हुई है। वहीं विवक्षित विषय की प्ररूपणा संक्षेप से प्रायः उसी ष० ख० के शब्दों में की गई है। सर्वार्थसिद्धिकार ने उस ष०ख० का आश्रय विशेषकर 'सत्संख्या' आदि सूत्र की व्याख्या में तथा एक-दो अन्य प्रसंगों पर ही लिया है। किन्तु तवा० के रचियता ने उसका आश्रय अनेक प्रसंगों पर लिया है । यह विशेष स्मरणीय है सर्वार्थसिद्धि में जिस 'सत्संख्या' आदि सूत्र की व्याख्या १०ख० के आधार से बहुत विस्तार के साथ की गई है उस सूत्र की व्याख्या में १. त० वा० ६,७,१२, पृ० ३२६-३२ २. इस प्रसंग से सम्बद्ध मूलाचार की ये गाथाएँ द्रष्टव्य हैं-- जीवाणं खलु ठाणाणि जाणि गुणसण्णिदाणि ठाणाणि । एदे मग्गणठाणेसु चेव परिमग्गदव्वाणि ।। तिरियगदीए चोद्दस हवंति सेसासु जाण दो दो दु । मग्गणठाणस्सेदं णेयाणि समासठाणाणि ।। १२,१५७-५८ ३. १० ख०, पु० १ में विवक्षित विषय से सम्बद्ध प्रसंगविशेषों को देखा जा सकता है। षट्भण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना | २१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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