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________________ (घ) अनादिविस्रसाबन्ध के स्वरूप को देखिए जो दोनों ग्रन्थों में सर्वथा समान हैं "जो सो अणादिय विस्ससाबंधो णाम सो तिविहो धम्मत्थिया अधम्मत्थिया आगासत्थिया चेदि । धम्मत्थिया धम्मत्थियदेसा धम्मत्थियपदेसा अधम्मत्थिया अधम्मत्थियदेसा अधम्मस्थियपदेसा आगासत्थिया आगासस्थियदेसा आगासत्थियपदेसा एदासिं तिण्णं पि अत्थिआणमण्णोण्णपदेसबंधो होदि।" —ष०ख० सूत्र ५,६,३०-३१ - "अनादिरपि वैससिकबन्धो धर्माधर्माकाशानामेकशः त्रैविध्यान्नवविधः । धर्मास्तिकायबन्धः धर्मास्तिकायदेशबन्धः धर्मास्तिकायप्रदेशबन्धः अधर्मास्तिकायबन्धः अधर्मास्तिकायदेशबन्धः अधर्मास्तिकायप्रदेशबन्ध: आकाशास्तिकायबन्धः आकाशास्तिकायदेशबन्धः आकाशास्तिकायप्रदेशबन्धश्चेति ।" -त० वा० ५,२४,११, पृ० २३२ आगे यहां धर्मास्तिकाय आदि के स्वरूप का निर्देश इस प्रकार किया गया है"कृत्स्नो धर्मास्तिकायः, तदधं देशः अर्धाधं प्रदेशः । एवमधर्माकाशयोरपि।" -त०वा० ५,२४,११, पृ० २३२ ष०ख० मूल में इनका कुछ भी स्पष्टीकरण नहीं किया गया है । पर धवलाकार ने उनके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए सब अवयवों के समूह को धर्मास्तिकाय, उसके अर्ध भाग से लेकर चतुर्थभाग तक को धर्मास्तिकायदेश और उसी के चौथे भाग से लेकर शेष को धर्मास्तिकायप्रदेश कहा है। आगे अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के भी स्वरूप को इसी प्रकार से जान लेने की सूचना कर दी है । (धवला पु० १४, पृ० ३०) (ड.) आगे दोनों ग्रन्थों में प्रयोगबन्ध के कर्मबन्ध और नोकर्मबन्ध रूप दो भेदों का निर्देश करते हुए नोकर्मबन्ध के ये पाँच भेद कहे गये हैं. आलापनबन्ध, अल्लीवनबन्ध' संश्लेषबन्ध, शरीरबन्ध और शरीरिबन्ध । इन पांचों बन्धों का स्वरूप भी दोनों ग्रन्थों में समान रूप से कहा गया है । (देखिए ष०ख० सूत्र ५,६,३८-६४ (पु० १४, पृ० ३६-४६) और त० वा० ५, २४,१३ पृ० २३२-३३) १३. तत्त्वार्थवार्तिक में 'अनित्यशरण' आदि सूत्र (तत्त्वार्थसूत्र ६-७) की व्याख्या करते हुए बोधिदुर्लभ भावना के प्रसंग में 'उक्तं च' कहकर आगमप्रामाण्य के रूप में 'एगणिगोवसरीरें आदि गाथासूत्र को उद्धृत किया गया है। वह गाथासूत्र ष०ख० में यथास्थान अवस्थित है।" १४. त० वा० में उपर्युक्त सूत्र की ही व्याख्या में 'धर्मस्वाख्यात' भावना के प्रसंग में १. त० वा० में इसका उल्लेख 'आलेपन' के नाम से किया गया है । वहाँ उसका स्वरूप इस प्रकार निर्दिष्ट है _ 'कुड्य-प्रासादादीनां मृतपिण्डेष्टकादिभिः प्रलेपदानेन अन्योऽन्यालेपनात् अर्पणात् आलेपनबन्धः । धातूनामनेकार्थत्वात् आड्.पूर्वस्य लिड.: अर्पणक्रियस्य ग्रहणम् ।' -त० वा० ५,२४,१३, ष०ख० में इसका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है-"जो सो अल्लीवणबंधो णाम तस्स इमो णिद्दे सो-से कडयाणं वा कुड्डाणं वा गोवरपीडाणं वा पागाराणं वा साडियाणं वा जे चामण्णे एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदव्वेहि अल्लीविदाणं बंधो होदि सो सव्वो अल्लीवणबंधो णाम ।" -१०ख०, सूत्र ५,६,१४ (पु० १४, पृ० ३६) २. ष०ख० पु० १४, पृ० २३४ तथा त० वा० ६,७,११, पु० ३२६ २१८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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