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चित्र अध्ययन का जिस प्रकार से वर्णन किया है मैं भी उसी प्रकार से वर्णन करूंगा।' दृष्टिवाद के पांच भेदों में से किस भेद से उक्त प्रज्ञापना अध्ययन निकला है', इसकी कुछ विशेष सूचना वहाँ नहीं की गई है, जैसी कि उसकी स्पष्ट सूचना षट्खण्डागम में की गई है।
षट्खण्डागम के समान नन्दिसूत्र में भी दृष्टिवाद के ये पाँच भेद निर्दिष्ट किये गये हैं(१) परिकर्म, (२) सूत्र, (३) पूर्वगत, (४) अनुयोग और (५) चूलिका । विशेषता इतनी रही है कि ष०ख० में जहाँ तीसरा भेद 'प्रथमानुयोग' निर्दिष्ट किया गया है वहाँ नन्दिसूत्र में चौथा भेद 'अनुयोग' कहा गया है। तीसरे चौथे भेद में क्रम-व्यत्यय है।
इस प्रकार नन्दिसूत्र में निर्दिष्ट समवायांग के स्वरूप को देखते हुए वर्तमान में उपलब्ध 'समवायांग' ग्रन्थ को मौलिक ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता है। कारण यह कि उसमें न तो परीत वाचनाएँ हैं और न संख्यात अनुयोगद्वार आदि भी हैं। उसके पदों का प्रमाण भी उतना (१४४०००) सम्भव नहीं है। वह तो वर्तमान में उपलब्ध आचारांग ग्रन्थ से भी, जिसके पदों का प्रमाण नन्दिसूत्र (८७) में केवल १८००० हजार ही निर्दिष्ट किया गया है, ग्रन्थप्रमाण में हीन है। उसका संकलन देवद्धि गणि क्षमाश्रमण (विक्रम सं० ५१०-५२३ के लगभग) के तत्त्वावधान में सम्पन्न हुई वलभी वाचना के पश्चात् किया गया है। उसके उपांगभूत प्रज्ञापना की रचना उसके बाद ही सम्भव है।
मौलिक श्रुत का वह प्रवाह भगवान महावीर और गौतम गणधर से प्रवाहित होकर विच्छिन्न धारा के रूप में आचार्य भद्रबाहु तक चला आया। आ० भद्रबाहु ही ऐसे एक श्रुतकेवली हैं जिन्हें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है। वे द्वादशांग श्रत के पारंगत रहे हैं। उनके समय में ही वह अखण्ड श्रत का प्रवाह दो धाराओं में संकुचित हो गया था। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, दिगम्बर मुनिजन उस श्रुत को उत्तरोत्तर लुप्त होता मानते रहे हैं । इस प्रकार क्रमशः उत्तरोत्तर श्रुत के हीन होते जाने पर जो उसके एक देशरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभूत आचार्य भूतबलि को प्राप्त हुआ उसका उपसंहार कर उन्होंने अपने बुद्धिबल से गुणस्थान और मार्गणाओं के आश्रय से प्रतिपाद्य विषयको यथासम्भव अनुयोग द्वारों में विभक्त किया और नय-निक्षेप के अनुसार उसका योजनाबद्ध सुव्यवस्थित व्याख्यान किया है। इससे आ० पुष्पदन्त के साथ उनके द्वारा विरचित षट्खण्डागम में व्याख्येय विषय के विवेचन में कहीं कुछ अव्यवस्था नहीं हुई है।
इसके विपरीत श्वेताम्बर मुनिजन वर्तमान में उपलब्ध अंगश्रुत में बँधकर उसी के संरक्षण व संवर्धन में लगे रहे, अपने बुद्धिबल से उन्होंने उसका क्रमबद्ध व्यवस्थित व्याख्यान नहीं किया।
१. सुय-रयणनिहाणं जिणवरेण भवियजणणिव्वुइकरेण ।
उवदंसिया भगवया पण्णवणा सव्वभावाणं ।। अज्झयणमिणं चित्तं सुय-रयणं दिट्ठिवायणीसंदं।
जह वणियं भगवया अहमवि तह वण्णइस्सामि ॥ -प्रज्ञापना गा०२-३ २. प्रस्तावना के लेखक भी इस विषय में कुछ निर्णय नहीं कर सके हैं। गुजराती प्रस्तावना
पृ०६ ३. ष० ख० (धवला) पु० १, पृ० १०६ तथा पु० ६, पृ० २०५ और नन्दिसूत्र ६८; नन्दि
सूत्र (११०) में अनुयोग के दो भेद निर्दिष्ट हैं- मूलप्रथमानुयोग और मणिकानुयोग।
२५० / षट्लण्डागम-परिशीलन
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