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________________ इससे प्रतिपाद्य विषय के विवेचन में क्रमबद्धता नहीं रही व अव्यवस्था भी हुई है । प्रज्ञापना को इसी कोटि का ग्रन्थ समझना चाहिए। यही कारण है कि प्रज्ञापना में प्रतिपाद्य विषय का ठीक से वर्गीकरण न करके उसका व्याख्यान अथवा संकलन किया गया है । उसमें विवक्षित विषय का विवेचन क्रमबद्ध व व्यवस्थित नहीं हो सका है । जिन ग्रन्थकारों ने उपलब्ध श्रुत की सीमा में न बँधकर अपनी प्रतिभा के बल पर नवीन शैली से प्रतिपाद्य विषय का व्याख्यान किया है उनके द्वारा रचे गये ग्रन्थों में कहीं कोई अव्यवस्था नहीं हुई है। इसके लिए 'जीवसमास' का उदाहरण है । उसमें समस्त गाथाओं की संख्या केवल २८६ है । वहाँ जो विवक्षित विषय का व्याख्यान किया गया है वह क्रमबद्ध व अतिशय व्यवस्थित रहा है । वहाँ प्रारम्भ में ही विवक्षित जीवसमासों को निक्षेप, नय, निरुक्ति तथा छह अथवा आठ अनुयोगद्वारों से अनुगन्तव्य कहा गया है और तत्पश्चात् चौदह गुणस्थानों और मार्गणाओं के नामनिर्देशपूर्वक सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में क्रम से गतिइन्द्रियादि मार्गणाओं' के आश्रय से उन जीवसमासों की प्ररूपणा की गई है। उसकी बहु-अर्थगर्भित उस संक्षिप्त प्ररूपणा को देखकर आश्चर्य उत्पन्न होता है । जीवसमास के अन्तर्गत २७ २८ २६ का पूर्वार्ध और उसी २६ का उत्तरार्ध ये गाथाएँ प्रज्ञापना में क्रम से ८-६, १० का पूर्वार्ध और ११ का उत्तरार्ध इन गाथांकों में उपलब्ध होती हैं । दोनों ग्रन्थों में इन गाथाओं के द्वारा पृथिवीभेदों का उल्लेख किया गया है । यह यहाँ स्मरणीय है कि जीवसमास ग्रन्थ में जहाँ पृथिवी के ३६ भेदों का उल्लेख है वहाँ प्रज्ञापना में उसके ४० भेदों का उल्लेख किया गया है । इससे दोनों ग्रन्थगत इस प्रसंग की अन्य गाथाओं में कुछ भेद हो गया है। आगे प्रज्ञापना में जीवसमास की अपेक्षा अप्कायिकादिकों के भेदों को भी विकसित कर उनका उल्लेख वहाँ अधिक संख्या में किया गया है । " आगे जीवसमास की गाथा ३५ का भी प्रज्ञापनागत गाथा १२ से मिलान किया जा सकता है, दोनों में पर्याप्त शब्दसाम्य है । विशेषता यह है कि प्रज्ञापना में वनस्पतिकायिकभेदों को अधिक विकसित किया गया है । जीवसमासगत विषय-विवेचन की शैली, रचनापद्धति और संक्षेप में अधिक अर्थ की प्ररूपणाविषयक पटुता को देखते हुए यह निश्चित प्रतीत होता है कि वह किसी अनिर्ज्ञात बहुश्रुतशाली प्राचीन प्राचार्य के द्वारा रचा गया है व सम्भवतः प्रज्ञापना से प्राचीन है । तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में प्रथम अध्यान के अन्तर्गत सूत्र ७ और ८ की आधारभूत कदाचित् जीवसमास की ये गाथाएँ हो सकती हैं— कि कस्स केण कत्थ व केवचिरं कइविहो उ भावोति । छह अणुयोगद्दाहि सव्वे भावाऽणुगंतव्वा ॥४॥ संतपयपरूवणया दव्वपमाणं च वित्त-फुसणा य । कालंतरं च भावो अप्पाबहुअं च बाराई ॥५॥ प्रज्ञापना की रचना तो सम्भवतः सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के पश्चात् हुई है । कारण यह है कि सर्वार्थसिद्धि में अंगबाह्य श्रुत के प्रसंग में दशवैकालिक और १. जीवसमास, गाथा २-६ २. जीवसमास गाथा ३१, ३२, ३३ और प्रज्ञापनासूत्र २८ (१), ३१ (१) व ३४ (१) षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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