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________________ उत्तराध्य यन का तो उल्लेख किया गया है, पर प्रज्ञापना का कहीं उल्लेख नहीं किया गया।' इसी प्रकार त० भाष्य में भी उसी अंगबाह्य श्रुत के प्रसंग में सामायिकादि छह आवश्यकों, दशवकालिक, उत्तराध्याय, दशाश्रुत, कल्प, व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित का तो उल्लेख है, पर प्रज्ञापना का वहाँ भी उल्लेख नहीं किया गया ।' यह भी ध्यातव्य है कि इसी प्रसंग में आगे त० भाष्य में 'उपांग' का भी निर्देश किया गया है । यह पूर्व में कहा जा चुका है कि प्रज्ञापना को चौथा उपांग माना जाता है। ऐसी स्थिति में यदि 'प्रज्ञापना' ग्रन्थ तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकार के समक्ष रहा होता तो कोई कारण नहीं कि वे दशवकालिकादि के साथ प्रज्ञापना का भी उल्लेख न करते । २. षट्खण्डागम में यदि प्रत्येक मार्गणा के प्रारम्भ में 'गदियाणवादण', इंदियाणुवादेण, कायाणुवादेण इत्यादि शब्दों का निर्देश करते हुए प्रकरण के प्रारम्भ करने की सूचना की गई है तो प्रज्ञापना में भी 'दिसाणुवाएण' और 'खेत्ताणुवाएण" इन शब्दों के द्वारा दिशा और क्षेत्र के आश्रय से अल्पबहुत्व के कथन की सूचना की गई है । 'बहुवक्तव्य' पद के अन्तर्गत २७ द्वारों में दिशा (१) और क्षेत्र (२४) द्वारों को छोड़कर यदि अन्य गति आदि द्वारों में वहीं इस 'गइअणुवाएणं' आदि की प्रक्रिया का आश्रय नहीं लिया गया है तो यह षट्खण्डागम उस प्रज्ञापना की प्राचीनता का साधक तो नहीं हो सकता, बल्कि इससे तो प्रज्ञापना में विषय चन की पद्धति में विरूपता ही सिद्ध होती है। समरूपता तो उसमें तभी सम्भव थी, जब उन सब द्वारों में से किसी भी द्वार में वैसे शब्दों का उपयोग न किया जाता या फिर और 'क्षेत्र' द्वारों के समान अन्य द्वारों में भी प्रसंग के अनुरूप वैसे शब्दों का उपयोग जाता। ___ यहाँ एक विशेषता और भी देखी गई है । वह यह कि सूत्र २१६ (१-८) में दिशाक्रम से सामान्य नारकों और फिर क्रम से सातों पृथिवियों के नारकों के अल्पबहुत्व को दिखलाकर प्रागे सूत्र २१७ (१-६) में 'दिसाणुवाएणं' शब्द का निर्देश न करके क्रम से दक्षिणदिशागत सातवी आदि पृथिवियों के नारकों से छठी आदि पृथिवियों के नारकों के अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है, किन्तु वहाँ पूर्वादि दिशागत सातवीं आदि पृथिवियों के नारकों से छठी आदि पृथिवियों के नारकों के अल्पबहुत्व को नहीं प्रकट किया गया है । इस प्रकार से यहाँ प्रकृत अल्पबहुत्व की प्ररूपणा अधूरी रह गई है। इसके अतिरिक्त यहाँ जीवभेदों में जिन जीवों का उल्लेख किया गया है उन सब में यदि १. "अङ्गबाह्यमनेकविधं दशवकालिकोत्तराध्ययनादि । XXआरातीयः पुनराचार्य: काल दोषात् संक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्वानुग्रहाय दशवकालिकाद्युपनिबद्धम्, तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव ।" -स०सि० १-२० २. "अङ्गबाह्यमनेकविधम् । तद्यथा-सामायिकं चतुर्विशतिस्तवो वन्दनं प्रतिक्रमणं काय व्युत्सर्गः प्रत्याख्यानं दशवकालिकं उत्तराध्यायाः दशाः कल्प-व्यवहारौ निशीथमृषिभाषितान्येवमादि।" -त० भाष्य १-२० ३. "तस्य च महाविषयत्वात् तांस्तानर्थानधिकृत्य प्रकरणसमाप्त्यपेक्षमङ्गोपाङ्गनानात्वम् ।" -त. भाष्य १-२० ४. प्रज्ञापनासूत्र २१३-२४, २७६-३२४ व ३२६-२६ २५२ / पट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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