SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई होती तो उसे परिपूर्ण कहा जाता। किन्तु वहाँ वैसा नहीं हुआ। उदाहरणार्थ, मनुष्यों को ले लीजिए। सूत्र २१६ में मनुष्यों के अल्पबहुत्व दिखलाते हुए वहाँ इतना मात्र कहा गया है 'दिशा के अनुवाद से मनुष्य दक्षिण-उत्तर की ओर सबसे स्तोक हैं, उनसे पूर्व की ओर संख्यातगुणे हैं, उनसे पश्चिम की ओर विशेष अधिक हैं ।' यह स्मरणीय है कि वहाँ मनुष्यजीवप्रज्ञापना में मनुष्यों के अनेक भेदों का उल्लेख किया गया है (सूत्र ६२-१३८)। उन सब में विशेष रूप से उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा क्यों नहीं की गई ? ___इसी प्रकार से आगे सूत्र २२० आदि में सामान्य से ही भवनवासी व वानव्यन्तर देवादि के अल्पबहुत्व दिखलाया गया है, जब कि पीछे प्रज्ञापना (सूत्र १४० आदि) में उनके-अनेक भेदों का उल्लेख हुआ है। स्थान भी उनके पृथक्-पृथक् दिखलाये गये हैं (सूत्र १७७-८७) आदि । ___इस प्रकार इस 'बहुवक्तव्य' पद में केवल जीवों के अल्पबहुत्व को प्ररूपणा की गई है, वह भी कुछ अपूर्ण ही रही है। ३. षट्खण्डागम (पु. १४) में शरीरिशरीर प्ररूपणा के प्रसंग में "तत्थ इमं साहारणलक्खणं भणिदं" (सूत्र १२१) ऐसी सूचना करते हुए आगे तीन (१२२-२४) गाथाओं को उद्धृत किया गया है। ये तीनों गाथाएँ विपरीत क्रम (६६,१००,१०१) से प्रज्ञापना में भी उपलब्ध होती हैं। उपर्युक्त सूत्र में यह साधारण जीवों का लक्षण कहा गया है' ऐसी सूचना करते हुए षट्खण्डागमकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ये परम्परागत गाथाएँ हैं। यदि प्रज्ञापना में वैसी कुछ सूचना न करके उन गाथाओं को ग्रन्थ में आत्मसात् किया गया है तो वे गाथाएँ प्रज्ञापनाकार के द्वारा रची गई हैं, यह तो सिद्ध नहीं होता। वे गाथाएँ निश्चित ही प्राचीन व परम्परागत हैं। ऐसी परम्परागत बहुत-सी गाथाएँ प्रज्ञापना के अन्तर्गत हैं जो उत्तराध्ययन एवं आचारांग व दशवकालिक आदि नियुक्तियों में उपलब्ध होती हैं। षट्खण्डागम गत उन गाथाओं में गाथा १२३ (प्रज्ञापना १००) का पाठ अवश्य कुछ दुरूह है, जबकि प्रज्ञापना में उसी का पाठ सुबोध है । इससे इतना तो स्पष्ट है कि वह परम्परागत गाथा षट्खण्डागमकार को उसी रूप में प्राप्त हुई है, भले ही उसका पाठ कुछ अव्यवस्थित या अशुद्ध रहा हो । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि षट्खण्डागमकार के समक्ष प्रकृत प्रज्ञापना ग्रन्थ नहीं रहा, अन्यथा वे उसे वहाँ देखकर उसका पाठ तदनुसार ही प्रस्तुत कर सकते थे। __यह भी सम्भव है कि षट्खण्डागमकार को तो उक्त गाथा का पाठ कुछ भिन्न रूप में उपलब्ध हुआ हो और तत्पश्चात् धवलाकार के पास तक आते आते वह कुछ भ्रष्ट होकर उन्हें उस रूप में प्राप्त हुआ हो। इस प्रकार जिस रूप में उन्हें वह प्राप्त हुआ, उसी की संगति धवला में बैठाने का उन्होंने प्रयत्न किया हो। इससे यह भी निश्चित प्रतीत होता है कि धवलाकार के समक्ष भी वह प्रज्ञापना ग्रन्थ नहीं रहा, अन्यथा वे उससे उक्त गाथा के उस सुबोध पाठ को ले लेते और तब वैसी कष्टप्रद संगति को बैठाने का परिश्रम नहीं करते।' १. धवला पु० १४, पृ० २२८-२९ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy