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________________ धवलाकार के समक्ष प्रज्ञापना के न रहने का दूसरा भी एक कारण है । वह यह कि धुतावतार के प्रसंग में अंगबाह्य या अनंगश्रुत के चौदह भेदों का उल्लेख करते हुए धवला में जहाँ दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और निशीथ जैसे ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है वहाँ प्रज्ञापना के समक्ष रहते हुए भी उसका उल्लेख न किया जाय; यह कैसे सम्भव है ? यदि धवलाकार प्रज्ञापना से परिचित रहे होते वे वहाँ दशवकालिक आदि के साथ उसका भी उल्लेख अवश्य करते ।' उन तीन गाथाओं में षट्खण्डागमगत गाथा १२४ और प्रज्ञापनागत गाथा ६६, दोनों एक ही हैं। उसमें जो 'समगं च अणुग्गहणं' और 'समयं आणुग्गहणं' यह पाठभेद है उसका कुछ विशेष महत्त्व नहीं है । ष० ख० में उसके पाठभेद में जो 'च' है वह समुच्चय का बोधक होने से सार्थक ही दिखता है । प्रज्ञापनागत पाठभेद में यदि 'च' नहीं रहा तो वहाँ छन्द की दृष्टि से 'अ' के स्थान में 'आ' का उपयोग करना पड़ा है। ४. १० ख० में 'महादण्डक' शब्द का उपयोग सात स्थलों में किया गया है, जबकि प्रज्ञापना में 'महादण्डक' शब्द का उपयोग एक ही स्थान में किया गया है । उसकी सूचना ष० ख० में प्रायः सर्वत्र 'कादश्वो भवदि' या 'कायव्वो भवदि' के रूप में की गई है । पर प्रज्ञापना (सूत्र ३३४) में उसका निर्देश 'वत्तइस्सामि' इस भविष्यत्कालीन क्रियापद के साथ किया गया है। ष० ख० में वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में बन्धक जीवों की प्ररूपणा करते हुए "गति के अनुवाद से नरकगति में नारक बन्धक हैं, तिथंच बन्धक हैं, देव बन्धक हैं, मनुष्य बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं, तथा सिद्ध अबन्धक हैं, इस प्रकार क्षद्रकबन्ध (द्वि० खण्ड) के ग्यारह अनुयोगद्वारों की यहाँ प्ररूपणा करना चाहिए" ऐसी सूचना करते हुए आगे यह भी कह दिया गया है कि "इस प्रकार से महादण्डक की भी प्ररूपणा करना चाहिए"। (पु० १४, सूत्र ६६-६७) ___यह संकेत उसी महादण्डक को ओर किया गया है, जिसका उल्लेख प्रज्ञापना की प्रस्तावना (पृ० १८) में किया गया है। ५. १० ख० में द्वि० खण्ड क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में जो छठा क्षेत्रानुगम और सातवाँ स्पर्शनानुगम अनुयोगद्वार हैं उनमें क्रम से जीवों के वर्तमान निवास रूप क्षेत्र १. अंगबाहिरस्स चोद्दस अत्याहियारा । तं जहा—सामाइयं चउवीसत्थओ वंदणापडिकमणं वेण इयं किदियम्मं दसवेयालियं उत्तरज्झयणं कप्पववहारो कप्पाकप्पियं महाकप्पियं पुंडरीयं महापुंडरीयं णिसिहियं चेदि ।" -धवला पु० १, पृ० ६६ तथा पु० ६, पृ० १८७-८८ (त०भाष्य में निर्दिष्ट अंग बाह्य के अनेक भेदों में जिनका उल्लेख किया गया है उनमें प्रारम्भ के चार तथा दशवकालिक, उत्तराध्ययन और निशीथ ये सात दोनों में समान हैं। धवला में जहाँ 'कप्पववहारो' पाठ है वहाँ त० भाष्य में 'कल्प-व्यवहारौ' पाठ है । श्वे० सम्प्रदाय में कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र ये दो पृथक् ग्रन्थ उपलब्ध हैं)। २. पु० ६, पृ० १४० व १४२; पु० ७, पृ० ५७५; पु० ११, पृ० ५६; पु० १२, पृ० ४४ व ६५; पु० १४, पृ० ४७ व ५०१ ३. महादण्डक के विषय में पीछे तुलनात्मक दृष्टि से पर्याप्त विचार किया जा चुका है । २५४ / षटखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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