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अविच्छिन्न आचार्य परम्परा से प्राप्त था। __उर्युपक्त विषयों में से बहुतों की प्ररूपणा प्रस्तुत षट्खण्डागम में भी की गई है जिसकी समानता विवेचन पद्धति के कुछ भिन्न होते हुए भी दोनों ग्रन्थों में देखी जाती है। उदाहरण के रूप में यहाँ उनमें से कुछ के विषय में प्रकाश डाला जाता है । जैसे
१. पूर्वनिर्दिष्ट क्रम के अनुसार मूलाचार में सर्वप्रथम पर्याप्तियों की प्ररूपणा की गई है। उसमें यहाँ प्रथमतः आहार-शरीरादि छह पर्याप्तियों के नामों का निर्देश करते हुए उनमें से एकेन्द्रियों के चार, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त द्वीन्द्रियादिकों के पाँच और संज्ञियों के छहों पर्याप्तियों का सद्भाव प्रकट किया गया है।'
षट्खण्डागम में जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में योगमार्गणा के प्रसंग में उन छह पर्याप्तियों की संख्या का निर्देश करते हुए वे किन जीवों के कितनी सम्भव हैं, इसे भी स्पष्ट किया गया है।
विशेषता इतनी है कि यहाँ उन आहार-शरीरादि छह पर्याप्तियों के नामों का उल्लेख नहीं किया गया, जो मूलाचार में किया गया है। उनके नामों का उल्लेख वहाँ धवला में कर दिया गया है । इसके अतिरिक्त मूलाचार में जहाँ एकेन्द्रियों के चार, द्वीन्द्रियादिकों के पांच और संज्ञियों के छह; इस क्रम से उनका उल्लेख किया गया है वहाँ षटखण्डागम में विपरीत क्रम से संज्ञियों के छह, द्वीन्द्रियादिकों के पाँच और एकेन्द्रियों के चार, इस प्रकार से उनका उल्लेख है। इस प्रकार क्रम भेद होने पर भी अभिप्राय में भिन्नता नहीं है।। ___मूलाचार में उक्त रीति से पर्याप्तियों के अस्तित्व को दिखलाते हुए यह कहा गया है कि इन पर्याप्तियों से जो जीव अनिवृत्त (अपूर्ण) होते हैं उन्हें अपर्याप्त जानना चाहिए।' ___यह अभिप्राय षट्खण्डागम में पृथक्-पृथक् उनकी संख्या के निर्देश के साथ ही प्रकट किया गया है। यथा—छ पज्जत्तीओ छ अपज्जत्तीओ (७०) आदि ।
मूलाचार में आगे उन पर्याप्तियों के निष्पन्न होने के काल का भी निर्देश किया गया है, जो ष०ख० में नहीं है।
२. मूलाचार में शुद्ध पथिवीकायिक, खरपृथिवी कायिक एवं अपकायिक आदि विभिन्न जातियों के जीवों की आयु के प्रमाण की प्ररूपणा की गई है । पर वहाँ इस प्ररूपणा में गुणस्थान और मार्गणा की अपेक्षा नहीं की गई।
ष० ख० में इस आयु (काल) की प्ररूपणा जीवस्थान के अन्तर्गत कालानुगम अनुयोगद्वार में और दूसरे खण्ड क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में से दूसरे ‘एक जीव की अपेक्षा काल' अनुयोगद्वार में भी की गई है। पर जीवस्थान में जहाँ गुणस्थान और मार्गणा दोनों की
१. मूलाचार १२, ४-६ २. ष० ख० सूत्र १, १, ७०-७५ (पु० १, पृ० ३११-१४) । ३. मूलाचार १२-६ ४. पज्जत्तीपज्जत्ता भिण्णमुहुत्ते ण होति णायव्वा । ___अणुसमयं पज्जत्ती सव्वेसिं चोववादीणं ॥१२-७ ५. मूलाचार १२, ६४.८३
षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | १५१
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