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________________ अपेक्षा रखी गई है वहाँ क्षुद्रकबन्ध में गुणस्थाननिरपेक्ष केवल मार्गणा के क्रम से उस काल की प्ररूपणा की गई है। इसके अतिरिक्त विवक्षित पर्याय में जीव उत्कृष्ट व जघन्य रूप में कितने काल रहता है इसकी विवक्षा १० ख० में रही है। पर मूलाचार में एक ही भव की अपेक्षा रखकर उस आयु की प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार इन दोनों ग्रन्थों में इस काल प्ररूपणा की सर्वथा तो समानता नहीं रहीं, फिर भी जिन जीवों की विवक्षित पर्याय उसी भव में समाप्त हो जाती है, भवान्तर में संक्रान्त नहीं होती, उन की आयु के विषय में दोनों ग्रन्थों में कुछ समानता देखी जाती है, यदि गुणस्थान की विवक्षा न की जाय । यथा___ मूलाचार में देवों व नारकियों की उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरोपम और जघन्य आयु दस हजार वर्ष निर्दिष्ट की गई है । आगे वहाँ पृथिवीक्रम से नारकियों की उत्कृष्ट आयु १, ३, ७, १०,१७, २२ और ३३ सागरोपम कही गई है। तत्पश्चात् वहाँ संक्षेप में यह निर्देश कर दिया गया है कि प्रथमादि पृथिवियों में जो उत्कृष्ट प्रायु है वही साधिक (समयाधिक) द्वितीय आदि पृथिवियों में यथाक्रम से जघन्य आयु है। यहीं पर यह भी सूचना कर दी गई है कि धर्मा (प्रथम) पृथिवी के नारकियों, भवनवासियों और व्यन्तर देवों की जघन्य आयु दस हजार वर्ष प्रमाण है।' इन जीवों की आयु का यही प्रमाण १० ख० में भी यथा प्रसंग निर्दिष्ट किया गया है। इसी प्रकार दोनों ग्रन्थों में देवों के आयुप्रमाण में भी समानता है, भले ही उसका उल्लेख आगे पीछे किया गया हो। विशेषता यह रही है कि मूलाचार में पृथक्-प्रथक् असुरकुमार-नागकुमारादि भवनवासियों और किंनर किंपुरुषादि व्यन्तरों, ज्योतिषियों एवं वैमानिकों की आयु का उल्लेख किया गया है, जिसका कि उल्लेख ष० ख० में नहीं किया गया। इसी प्रकार मूलाचार में सौधर्मादि कल्पों की देवियों के भी आयुप्रमाण को प्रकट किया गया है, जिसका उल्लेख १० ख० में नहीं किया गया। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि मूलाचार में देवियों की इस आयु के प्रमाण को दो भिन्न मतों के अनुसार प्रकट किया गया है। इनमें प्रथम मत के अनुसार सोलह कल्पों में से प्रत्येक में उन देवियों के आयुप्रमाण को यथा क्रम से ५,७,६,११,१३,१५,१७,१९,२१,२३,२५,२७,३४,४१, ४८ और ५५ पल्योपम निर्दिष्ट किया गया है । यही आयुप्रमाण उनका दूसरे मत के अनुसार यथाक्रम से प्रत्येक कल्पयुगल में ५,१७,२५,३०,३५,४०,४५, और ५५ पल्योपम कहा गया है। वृत्तिकार आ० वसुनन्दी ने द्वितीय उपदेश को न्याय्य बतलाते हुए विकल्प के रूप में दोनों १. मूलाचार १२, ७३-७५ २. १० ख० सूत्र २, २, १-१ और २, २, २५-२६ (पु० ७)। ३. मूलाचार १२, ७६-७८ व ष० ख० सूत्र २, २, २८-३८ ४. वही, १२, ७६-७८ ५. वही १२, ८६-८० १५२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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