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उपदेशों को ग्राह्य कहा है ।"
विरुद्ध मतों के सद्भाव में धवलाकार आ० वीरसेन की प्रायः इसी प्रकार की पद्धति रही है । उसी का अनुसरण सम्भवतः आ० वसुनन्दी ने किया है । "
देवियों के आयु प्रमाणविषयक ये दोनों मत तिलोयपण्णत्ती में भी उपलब्ध होते हैं । उनमें प्रथम मत का उल्लेख वहाँ 'लोगायणिये' इस निर्देश के साथ और दूसरे मत का उल्लेख 'मूलायारे इरिया एवं णिउणं णिरूवेति' इस सूचना के साथ किया गया है।
३. मूलाचार में वेदविषयक प्ररूपणा के प्रसंग में यह कहा गया है कि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, नारकी और सम्मूर्च्छन ये सब जीव वेद से नियमतः नपुंसक होते हैं । देव, भोगभूमिज और असंख्यात वर्ष की आयुवाले - भोगभूमिप्रतिभाग में उत्पन्न हुए व म्लेच्छखण्डों में उत्पन्न हुए - मनुष्य और तिर्यंच ये स्त्री और पुरुष इन दो वेदों से युक्त होते हैं, उनके तीसरा ( नपुंसक) वेद नहीं होता । शेष पंचेन्द्रिय संज्ञी व असंज्ञी तिर्यंच एवं मनुष्य ये तीनों वेदवाले होते हैं । *
ष० ख० में इस वेद की प्ररूपणा सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत वेदमार्गणा में की गई है । दोनों ग्रन्थों का वेदविषयक यह अभिप्राय प्रायः समान ही है । प्ररूपणा के क्रम में भेद अवश्य रहा है, पर आगे पीछे उसका निरूपण उसी रूप में किया गया है। विशेष इतना है कि ० ख० में जो वेद की प्ररूपणा की गई है उसमें गुणस्थान और मार्गणा की विवक्षा रही है, जो मूलाचार में नहीं रही।
४. मूलाचार में अवधिज्ञान के विषय की प्ररूपणा करते हुए जिन गाथाओं के द्वारा देवनारकियों के अवधिज्ञान के विषय को प्रकट किया गया है उनमें गाथा १०७ व १०६-१० ष० ख० में सूत्र के रूप में उपलब्ध होती हैं । विशेष इतना है कि मूलाचारगत गाथा ११० के उत्तरार्ध में जहाँ 'संखातीदा य खलु' ऐसा पाठ है वहाँ ष० ख० में 'संखातीदसहस्सा' ऐसा पाठ है।
मूलाचार की गाथा १०८ और ष० ख० की गाथा १३ व १४ के पूवार्ध में कुछ पाठभेद है, इससे अभिप्राय में भी कुछ भेद दिखने लगा है । परन्तु धवलाकार ने उसका समन्वय करते हुए प्रसंगप्राप्त उस गाथा की व्याख्या में कहा है कि आनत - प्राणतकल्पवासी देव पांचवीं पृथिवी के अधस्तन तलभाग तक साढ़े नौ राजु आयत और एक राजु विस्तृत लोकनाली को
१. देवायुषः प्रतिपादनन्यायेनायमेवोपदेशो न्याय्योऽत्रैवकारकरणादथवा द्वावप्युपदेशौ ग्राह्यो, सूत्र द्वयोपदेशात् । द्वयोर्मध्य एकेन सत्येन भवितव्यम् । नात्र सन्देहमिथ्यात्वम्, यदर्हत्प्रणीतं तत्सत्यमिति सन्देहाभावात् । छद्मस्थैस्तु विवेकः कर्तुं न शक्यतेऽतो मिथ्यात्वभयादेव द्वयोर्ग्रहणमिति । वृत्ति १२ - ८०
२. धवला पु० १, पृ० २१७-२१, ०७, पृ० ५३६-४० और पु० ६, पृ० १२६ इत्यादि । ३. ति० प० गाथा ८,५३० - ३२ 'मूलायारेइरिया' ऐसा कहकर सम्भवतः इस मूलाचार के रचयिता आचार्य की ओर ही संकेत किया गया है ।
४. मूलाचार १२,८७-८६
५. ष० ख० सूत्र १०५-१० ( पु० १, पृ० ३४५-४७ ) ।
६. गाथा सूत्र १२ व १०-११ ( पु० १३, पृ० ३१६ व ३१४-१५) ।
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षट्खण्डागल की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १५३
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