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________________ देखते हैं तथा आरण-अच्युत कल्पवासी देव पांचवीं पृथिवी के अधस्तन तलभाग तक दस राजु आयत और एक राजु विस्तृत लोकनाली को देखते हैं । नौवेयकवासी देव छठी पृथिवी के अधस्तन तलभाग तक साधिक ग्यारह राजु आयत और एक राजु विस्तृत लोकनाली को देखते हैं।' ___विशेषता यहाँ यह रही है कि मूलाचार में आगे गाथा १११ में पृथिवी क्रम से नारकियों के भी अवधिज्ञान के विषयभूत क्षेत्र को स्पष्ट किया गया है, जिसका स्पष्टीकरण ष० ख० में नहीं किया गया है। ५. मूलाचार में गुणस्थान और मार्गणा की विवक्षा न करके सामान्य से गति-आगति की प्ररूपणा विस्तार से की गई है। वहाँ संक्षेप में विवक्षित गति में जहाँ जिन जीवों की उत्पत्ति सम्भव है उनकी उत्पत्ति को जातिभेद के बिना एक साथ प्रकट किया गया है । जैसे असंज्ञी जीव प्रथम पृथिवी में, सरीसृप द्वितीय पृथिवी तक, पक्षी तीसरी पृथिवी तक, उरःसर्प (अजगर आदि) चौथी पृथिवी तक, सिंह पाँचवीं पृथिवी तक, स्त्रियाँ छठी पृथिवी तक और मत्स्य सातवीं पृथिवी तक जाते हैं। ___ इस प्रकार मूलाचार में यथाक्रम से नरकों में उत्पन्न होनेवाले जीवविशेषों का निर्देश करके आगे नारक पृथिवियों से निकलते हुए नारकी कहाँ किन अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं और किन अवस्थाओं को नहीं प्राप्त करते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सातवीं पृथिवी से निकले हुए नारकी मनुष्य पर्याय को प्राप्त नहीं करते, वहाँ से निकलकर वे तिर्यच गति में संख्यात वर्ष की आयुवाले (कर्मभूमिज व कर्मभूमिप्रतिभागज), व्यालों, दंष्ट्रावाले सिंहादिकों में, पक्षियों में और जलचरों में उत्पन्न होते हैं तथा फिर से भी वे नारक अवस्था को प्राप्त होते हैं। छठी पृथिवी से निकले हुए नारकी अनन्तर जन्म में मनुष्यभव को कदाचित् प्राप्त करते हैं । पर मनुष्यभव को प्राप्त करके वे संयम को प्राप्त नहीं कर सकते । पाँचवीं पृथिवी से निकला हुआ जीव संयम को तो प्राप्त कर सकता है, किन्तु वह भवसंक्लेश के कारण नियम से मुक्ति को नहीं प्राप्त कर सकता है । चौथी पृथिवी से निकला हुआ जीव मुक्ति को तो प्राप्त कर सकता है, पर निश्चित ही वह तीर्थंकर नहीं हो सकता। प्रथम तीन पृथिवियों से निकले हुए नारकी अनन्तर भव में कदाचित् तीर्थंकर तो हो सकते हैं, पर वे नियम से बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती पदों को नहीं प्राप्त कर सकते हैं। १० ख० में जीवस्थान खण्ड से सम्बद्ध नौ चूलिकाओं में अन्तिम गति-आगति चूलिका है। उसमें गति-इन्द्रिय आदि मार्गणाओं के क्रम से गुणस्थान निर्देशपूर्वक प्रकृत गति-आगति १. धवला पु० १३, पृ० ३१६ २. मूलाचार १२, ११२-१३ ३. प्रसंगप्राप्त यह मूलाचार की गाथा (१२-११५) तिलोयपण्णत्ती की गाथा २-२६० से प्रायः शब्दशः समान है । यहाँ यह स्मरणीय है कि मूलाचार और तिलोयपण्णत्ती में प्ररूपित अनेक विषयों में पर्याप्त समानता है। देखिए ति० १० भाग २ की प्रस्तावना पृ० ४२ ४४ में 'मूलाचार' शीर्षक । ४. मूलाचार १२, ११४-२० १५४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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