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________________ धवला में कहा गया है कि समस्त पर्याय को नष्ट करके फिर से दीक्षा देना मूल प्रायश्चित कहलाता है । यह अभिप्राय 'सर्वार्थसिद्धि' और 'तत्त्वार्थवार्तिक' (६,२२,१०) में 'उपस्थापना' प्रायश्चित्त के अन्तर्गत है।' __'श्रद्धान' प्रायश्चित का उल्लेख भी तत्त्वार्थसूत्र में नहीं हुआ है। इसका स्वरूप स्पष्ट करते हुए धवला में कहा है कि जो मिथ्यात्व को प्राप्त होकर स्थित है उसके लिए महाव्रतों को ग्रहण करके आप्त, आगम और पदार्थों का श्रद्धान करना-यही प्रायश्चित्त है।' परिहार प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य और पारंचिक के भेद से दो प्रकार का है। इनमें अनवस्थाप्य परिहार प्रायश्चित्त जघन्य से छह मास और उत्कर्ष से बारह वर्ष तक किया जाता है । इस प्रायश्चित्त का आचरण करनेवाला अपराधी साधु कायभूमि से परे विहरता है-साधुसंघ से दूर रहता है, प्रतिवन्दना से रहित होता है, गुरु को छोड़कर शेष जनों से मौन रखता है तथा क्षपण (उपवास), आचाम्ल, एकस्थान और निर्विकृति आदि तपों के द्वारा रस, रुधिर व मांस को सुखाता है ।। पारंचिक-परिहार प्रायश्चित्त भी इसी प्रकार का है । विशेषता यह है कि उसका आचरण साधर्मिक जन से रहित स्थान में कराया जाता है । इसमें उत्कर्ष से छह मास के उपवास का भी उपदेश किया गया है । ये दोनों प्रायश्चित्त राजा के विरुद्ध आचरण करने पर नौ-दस पूर्वो के धारक आचार्यों के होते हैं। 'चारित्रसार'५ में अनवस्थान परिहार को निजगण और परगण के भेद से दो प्रकार का कहा है। इनमें से जो मुनि प्रमाद के वश अन्य मुनि सम्बन्धी ऋषि, छात्र, गृहस्थ, दूसरे पाखण्डियों से सम्बद्ध चेतन-अचेतन द्रव्य अथवा पर-स्त्री को चुराता है या मुनियों पर प्रहार करता है, तथा इसी प्रकार अन्य भी विरुद्ध आचरण करता है उसे निजगणानुपस्थापन परिहार प्रायश्चित्त दिया जाता है । इसका आचरण करनेवाला नौ-दस पूर्वो का धारक, आदि के तीन संहननों से सहित, परीषह का जीतनेवाला, धर्म में स्थिर, धीर व संसार से भयभीत होता है । वह ऋषि-आश्रम से बत्तीस धनुष दूर रहता है, बालमुनियों की भी वन्दना करता है, प्रतिवन्दना से रहित होता है, गुरु के पास आलोचना करता है, शेष जनों के विषय में मौन रखता है, पीछी को उलटी रखता है, तथा जघन्य से पांच-पांच व उत्कर्ष से छह-छह मास का उपवास करता है। १. पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना । महाव्रतानां मूलोच्छेदं कृत्वा पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापनेत्या___ ख्याते ।-त०वा० ६,२२,१० २. धवला पु० १३, पृ० ६३ ३. इसके विषय में विविध ग्रन्थों में शब्दभेद या पाठभेद हुआ है । देखिए, 'जैन लक्षणावली' ____ में अनवस्थाप्यता, अनवस्थाप्याई, अनुपस्थान और अनुपस्थापन शब्द । ४. धवला पु० १३, पृ० ५६-६३ ५. इस प्रसंग से सम्बद्ध धवला (पु० १३) में जो टिप्पण दिये गये हैं उनमें चारित्रसार के . स्थान में 'आचारसार' का उल्लेख है। ६. चारित्रसार पृ० ६३-६४ (इससे शब्दशः समान यही सन्दर्भ 'अनगार धर्मामृत' की स्वो० टीका (७-५६) में भी उपलब्ध होता है)। ५१० / षदखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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