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________________ प्रकृति के भेद से उसका भेद सम्भव नहीं है, क्योंकि एक ज्ञानावरणीय प्रकृति में भेद का व्यवहार नहीं देखा जाता। समयभेद से भी उसका भेद सम्भव नहीं है, क्योंकि बध्यमान वेदना वर्तमान काल को विषय करती है, अतः उसमें काल का बहुत्व नहीं हो सकता। इसी पद्धति से आगे यथासम्भव संग्रहनय की अपेक्षा प्रकृत कर्मवेदना की प्ररूपणा की गई (४७-५५) है। __ ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा उदीर्ण-जिसका विपाक फल को प्राप्त है-ही वेदना है। यही अभिप्राय अन्य दर्शनावरणीय आदि सात कर्मों के विषय में समझना चाहिए (५६-५७) । इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि जो कर्मस्कन्ध जिस समय में अज्ञान को उत्पन्न करता है उसी समय में वह ज्ञानावरणीय वेदना रूप होता है, आगे के समय में वह उस रूप नहीं होता; क्योंकि उस समय उसकी कर्मपर्याय नष्ट हो जाती है। पूर्व समय में भी वह उक्त वेदना स्वरूप नहीं हो सकता, क्योंकि उस समय वह अज्ञान के उत्पन्न करने में समर्थ नहीं रहता। इसलिए इस नयकी दृष्टि में एक उदीर्ण वेदना ही वेदना हो सकती है। शन्द नयकी अपेक्षा उसे अवक्तव्य कहा गया है, क्योंकि उसका विषय द्रव्य नहीं है (५८)। इस प्रकार यह वेदनावेदनाविधान ५८ सूत्रों में समाप्त हुआ है। ११. वेदनागतिविधान-वेदना का अर्थ कर्मस्कन्ध और गति का अर्थ गमन या संचार है। तदनुसार अभिप्राय यह हुआ कि राग-द्वेषादि के वश जीवप्रदेशों का संचार होने पर उनसे सम्बद्ध कर्मस्कन्धों का भी उनके साथ संचार होता है। प्रस्तुत अनुयोगद्वार में नयविवक्षा के अनुसार ज्ञानावरणीयादि रूप कर्मस्कन्धों की उसी गति का विचार किया गया है। यथा-नैगम, व्यवहार और संग्रह इन तीन नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् अस्थित (संचारित) है। कथंचित् वह स्थित-अस्थित है (१-३)। इसका अभिप्राय यह है कि व्याधिवेदनादि के अभाव में जिन जीव प्रदेशों का संचार नहीं होता उनमें समवेत कर्मस्कन्धों का भी संचार नहीं होता तथा उन्हीं जीवप्रदेशों में कुछ का संचार होने पर उनमें स्थित कर्मस्कन्धों का भी संचार होता है । इसी अपेक्षा से उस ज्ञानावरणीय वेदना को कथंचित् स्थित-अस्थित कहा गया है। आगे यह सूचना कर दी गई है कि जिस ज्ञानावरणीय की दो प्रकार गतिविधान की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन तीन कर्मों के गतिविधान की प्ररूपणा करना चाहिए (४)। वेदनीयवेदना कथंचित-अयोगिककेवली की अपेक्षा-स्थित, कथंचित् अस्थित और कथंचित् स्थित-अस्थित है। इसी प्रकार आयु, नाम और गोत्र कर्मों के गतिविधान की प्ररूपणा जानना चाहिए (५-८)। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् स्थित और कथंचित् अस्थित है । इस नय की अपेक्षा अन्य सात कर्मों के भी गतिविधान की प्ररूपणा इसी प्रकार करना चाहिए (८-११)। शब्दनय की अपेक्षा वह अवक्तव्य कही गई है (१२) । इस प्रकार यह वेदनागतिविधान अनुयोगद्वार १२ सूत्रों में समाप्त हुआ है। १२. वेदना-अनन्तर-विधान—पूर्व वेदना-वेदना-विधान अनुयोगद्वार में बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त इन तीनों अवस्थाओं को वेदना कहा जा चुका है। उनमें बध्यमान कर्म बंधने ६८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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