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के समय में ही विपाक को प्राप्त होकर फल देता है अथवा द्वितीय आदि समयों में वह फल देता है, इसका स्पष्टीकरण इस वेदना-अनन्तर-विधान में किया गया है। बन्ध अनन्तर-बन्ध और परम्परा-बन्ध के भेद से दो प्रकार का है। इनमें कार्मण वर्गणास्वरूप से स्थित पुद्गल स्कन्धों का मिथ्यात्व आदि के द्वारा कर्मस्वरूप से परिणत होने के प्रथम समय में जो बन्ध होता है वह अनन्तर-बन्ध कहलाता है। बन्ध के द्वितीय समय से लेकर कर्मपुद्गल-स्कन्धों और जीवप्रदेशों का जो बन्ध होता है उसे परम्परा-बन्ध कहा जाता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर समयों में होने वाले बन्ध की निरन्तरता को परम्परा-बन्ध समझना चाहिए। इसका विवेचन यहाँ संक्षेप में नयविवक्षा के अनुसार किया गया है । यथा
पूर्व पद्धति के अनुसार प्रस्तुत वेदना-अनन्तर-विधान का स्मरण कराते हुए आगे कहा गया है कि नगम, व्यवहार और संग्रह इन तीन नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना-अनन्तरबन्ध रूप, परम्परा-बन्धरूप और उभय-बन्ध रूप हैं। इसी प्रकार इस नय की अपेक्षा अन्य सात कर्मों की प्ररूपणा करना चाहिए (१-५)।
इसका स्पष्टीकरण धवला में प्रकारान्तर से इस प्रकार किया गया है-ज्ञानावरणादिरूप अनन्तानन्त कर्मस्कन्ध जो निरन्तर स्वरूप से परस्पर में सम्बद्ध होकर स्थित होते हैं उनका नाम अनन्तर-बन्ध है । ये ही अनन्तर-बन्ध रूप कर्मस्कन्ध जब ज्ञानावरणादि कर्मरूपता को प्राप्त होते हैं तब उन्हें परम्परा-ज्ञानावरणादि-वेदना कहा जाता है। अनन्तानन्त कर्मपुद्गल स्कन्ध परस्पर में सम्बद्ध होकर शेष कर्मस्कन्धों से असम्बद्ध रहते हुए जब जीव के द्वारा सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं तब वे परम्परा-बन्ध कहलाते हैं। ये भी ज्ञानावरणादि वेदना स्वरूप होते हैं।'
संग्रह नय की अपेक्षा उन ज्ञानावरणादि वेदनाओं को अनन्तर-बन्ध व परम्परा बन्ध भी कहा गया है (६.८)। ____ आगे ऋजसूत्र नय की अपेक्षा आठों ज्ञानावरणादि वेदनाओं को परम्परा-बन्ध और शब्द नय की अपेक्षा उन्हें अवक्तव्य कहा गया है (६-११)। ___ इस अनुयोगद्वार में ११ ही सूत्र हैं।
१३. वेदना-संनिकर्ष-विधान-जघन्य व उत्कृष्ट भेदों में विभक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इनमें किसी एक की विवक्षा में शेष पद क्या उत्कृष्ट हैं, अनुत्कृष्ट हैं, जघन्य हैं या अजघन्य हैं; इसकी जो परीक्षा की जाती है, इसका नाम संनिकर्ष है । वह स्वस्थान संनिकर्ष और परस्थान संनिकर्ष के भेद से दो प्रकार का है। इनमें विवक्षित कर्मविषयक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को विषय करनेवाले संनिकर्ष का नाम स्वस्थान संनिकर्ष तथा आठों कर्मों सम्बन्धी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को विषय करनेवाले संनिकर्ष का नाम परस्थान संनिकर्ष है। प्रस्तुत अनुयोगद्वार में इसी संनिकर्ष की प्ररूपणा की गई है । यथा
यहाँ सर्वप्रथम 'वेदना संनिकर्ष विधान' का स्मरण कराते हुए संनिकर्ष के पूर्वोक्त इन दो भेदों का निर्देश किया गया है--स्वस्थान-वेदना-संनिकर्ष और परस्थान-वेदना-संनिकर्ष । इनमें स्वस्थान-वेदना-संनिकर्ष को जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। उत्कृष्ट स्वस्थानवेदनासंनिकर्ष द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार प्रकार का है (१-५)।
१. धवला, पु. १२, पृ० ३७१-७२
मूलमन्थगत विषय का परिचय | EE
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