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(दुर्नय) होते हैं-ऐसा कहते हुए वहाँ 'अत्रोपयोगिनः श्लोकाः' निर्देश करके तीन श्लोकों को उद्धृत किया गया है। उनमें प्रथम दो श्लोक समन्तभद्राचार्य-विरचित 'स्वयम्भस्तोत्र' में और तीसरा उन्हीं के द्वारा विरचित 'आप्तमीमांसा' में उपलब्ध होता है । यहाँ धवला में उन्हें विपरीत क्रम से उद्धृत किया गया है।'
३४. हरिवंशपुराण-पूर्वोक्त 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में उन्हीं कालभेदों की प्ररूपणा करते हए आगे धवला में कहा गया है कि एक 'पूर्व' के प्रमाण वर्षों को स्थापित करके उन्हें एक लाख से गुणित चौरासी के वर्ग से गुणित करने पर 'पर्व' का प्रमाण होता है। इसी प्रसंग में आगे कहा गया है कि असंख्यात वर्षों का पल्योपम होता है।
पल्य-विचार
इसी प्रसंग में आगे शंकाकार ने "योजनं विस्तृतं पल्यं' इत्यादि दो श्लोकों को उद्धृत करते हुए यह कहा है कि इस वचन के अनुसार संख्यात वर्षों का भी व्यवहार-पल्य होता है, उसे यहां क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उक्त वचन में जो 'वर्षशत' शब्द है वह विपुलता का वाचक है, इससे उसका अभिप्राय यह है कि असंख्यात सौ वर्षों के बीतने पर एक-एक रोम के निकालने से असंख्यात वर्षों का ही पल्योपम होता है। __ यहाँ धवला में जो उक्त दो श्लोक उद्धत किये गये हैं वे उसी अभिप्राय के प्ररूपक पुनाटकसंघीय आ० जिनसेन-विरचित हरिवंशपुराण के "प्रमाणयोजनव्यास-" इत्यादि तीन श्लोकों के समान हैं।
हरिवंशपुराणगत वे तीन श्लोक धवला में उद्धृत उक्त दो श्लोकों से अधिक विकसित हैं। जैसे- उन दो श्लोकों में सामान्य से 'योजन शब्द का उपयोग किया गया है तथा परिधि के प्रमाण का वहां कुछ निर्देश नहीं किया गया है, जब कि हरिवंशपुराण के उन श्लोकों में विशेष रूप से प्रमाण योजन का उपयोग किया गया है तथा परिधि के प्रमाण का भी उल्लेख किया गया है।
इससे ऐमा प्रतीत होता है कि धवलाकार के सामने लोकस्वरूप का प्ररूपक कोई प्राचीन ग्रन्थ रहा है । उसी से सम्भवत: उन्होंने उन दो श्लोकों को उद्धृत किया है ।
सर्वार्थसिद्धि में प्रसंगवश पल्य की प्ररूपणा करते हुए उसके ये तीन भेद निर्दिष्ट किये हैंव्यवहारपल्य, उद्धारपल्य और अद्धापल्य । वहाँ इन तीन पल्यों और उनसे निष्पन्न होने वाले व्यवहार-पल्योपम, उद्धार-पल्योपम और अद्धापल्योपम के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उनके प्रयोजन को भी प्रकट किया गया है । अन्त में वहाँ 'उक्ता च संग्रहगाथा' इस सूचना के साथ यह एक गाथा उद्धृत की गयी है"..--
१. देखिए धवला, पु० ६, पृ० १८२ और स्वयम्भूस्तोत्र श्लोक ६२,६१ तथा आप्तमीमांसा __ श्लोक १०८ २. देखिए धवला, पु० १३, पृ० ३०० और ह०पु० श्लोक ७,४७-४६ ३. ऐसी कुछ विशेषता हरिवंशपुराण में दृष्टिगोचर नहीं होती। ४. देखिए स०सि० ३-३८
६४४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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