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ववहारसारखा पल्ला तिण्णेव होंति बोब्वा ।
संखादी च समुद्दा कम्मदिदि वण्णिदा तदिये ॥-स० सि० ३-३८ यह गाथा प्राय: इसी रूप में जम्बूवीवपण्णत्ती में उपलब्ध होती है (देखिए जल्दीगा० १३-३६)। यहाँ 'बोद्धव्वा' के स्थान में उसका समानार्थक 'णायव्वा' शब्द है। तीसरा पाद यहाँ 'संखादीव-समुद्दा' ऐसा है । सर्वार्थसिदि में उसके स्थान में जो 'संखादी च समूहा' ऐसा पाठ उपलब्ध होता है वह निश्चित ही अशुद्ध हो गया प्रतीत होता है, क्योंकि 'च' और 'व' की लिखावट में विशेष अन्तर नहीं है। इस प्रकार स०सि० में सम्भवतः 'संखादी च समुद्दा' के स्थान में 'संखादीव-समुद्दा' ऐसा ही पाठ रहा है, ऐसा प्रतीत होता है। इसी अभिप्राय की प्ररूपक एक गाथा तिलोयपण्णत्ती में इस प्रकार उपलब्ध होती है
ववहारुद्वारदा तियपल्ला पढमयम्मि संखाओ।
विदिए द्वीव-समुद्दा तदिए मिज्जेवि कम्मठिदी ॥१-१४॥ इस परिस्थिति को देखते हुए यह निश्चित प्रतीत होता है कि इन ग्रन्थों के पूर्व लोकानयोग विषयक दो-चार प्राचीन ग्रन्थ अवश्य रहने चाहिए, जिनके आधार से इन ग्रन्थों में विविध प्रकार से लोक की प्ररूपणा की गयी है ।
तिलोयपण्णत्ती में अनेक बार ऐसे कुछ ग्रन्थों का उल्लेख भी किया गया है। यथा- . ___ मग्गायणी (४-१९८२), लोकविनिश्चय (४-१८६६ आदि), लोकविभाग (१.२८२ व ४२४४८ आदि), लोकायनी (८-५३०), लोकायिनी (४-२४४४), सग्गायणी (४-२१७), संगाइणी (४-२४४८), संगायणी (८-२७२), संगाहणी (८-३८७) और संगोयणी (४-२१९)।
अनिदिष्टनाम ग्रन्थ /६४५
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