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वेदना खण्ड के अन्तर्गत कृतिअनुयोगद्वार में मंगल के प्रसंग में देशावधि-परमावधि की प्ररूपणा करते हुए धवलाकार ने भी इन गाथाओं को उद्धृत किया है और कहा है कि इन गाथाओं द्वारा कहे गये समस्त अवधिज्ञान के क्षेत्रों के इस अर्थ प्ररूपणा करना चाहिए।'
आगे प्रकृति अनुयोगद्वार में दर्शनावरणीय आदि अन्य मूल प्रकृतियों की उत्तर-प्रकृतियों के नामों का उल्लेख पृथक्-पथक किया गया है, पर महाबन्ध में उनके नामों का पृथक्-पृथक् निर्देश न करके उनकी संख्या मात्र की सूचना की गई है व अन्त में यह कह दिया है कि 'यथा पगदिभंगो तथा कादवो' । यह सूचना करते हुए आचार्य भूतबलि ने सम्भवतः इसी प्रकृति अनुयोगद्वार की ओर संकेत किया है।
२-३. सर्वबन्ध-नोसर्वबन्ध--इन दो अनुयोगद्वारों में ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियों के विषय में सर्वबन्ध व नोसर्वबन्ध का विचार किया गया है । विवक्षित कर्म की जब अधिक से अधिक प्रकृतियाँ एक साथ बँधती हैं तब उनके बन्ध को सर्वबन्ध कहा जाता है। जैसेज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियाँ और अन्त राय की पाँच प्रकृतियाँ ये अपनी बन्धव्युच्छित्ति होने तक सूक्ष्मसाम्परायसंयत गुणस्थान तक साथ-साथ बँधती हैं, अतएव वह इन दोनों कर्मों का सर्वबन्ध है। __दर्शनावरण की नौ प्रकृतियाँ दूसरे गुणस्थान तक साथ-साथ बँधती हैं, अतएव उसका दूसरे गुणस्थान तक सर्वबन्ध है । दूसरे गुणस्थान में निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचलाऔर स्त्यानगृद्धि इन तीन की बन्ध्र व्युच्छित्ति हो जाने से आगे अपूर्वकरण के प्रथम भाग तक छह प्रकृतियाँ बँधती हैं, अत: उसका यह नोसर्वबन्ध है । इसी प्रकरण के प्रथम भाग में निद्रा और प्रचला इन दो के व्यच्छिन्न हो जाने से आगे सूक्ष्मसाम्प्रराय तक उसकी चार प्रकृतियाँ बँधती हैं, यह भी उसका नोसर्वबन्ध है । इस प्रकार दर्शनावरण का सर्वबन्ध भी होता और नोसर्वबन्ध भी होता है। _वेदनीय, आयु और गोत्र इन तीन कर्मों का नोसर्वबन्ध ही होता है, क्योंकि उनकी एक समय में किसी एक प्रकृति का ही बन्ध सम्भव है।
मोहनीय और नामकर्म इन दो का सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध दोनों होते हैं।
४-७. उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्ट बन्ध, जघन्यबन्ध और अजघन्यबन्ध ये प्रकृतिबन्ध में सम्भव नहीं है।
८-९. सादि-अनादिबन्ध-विवक्षित कर्मप्रकृति के बन्ध का अभाव हो जाने पर पुनः उसका बन्ध होना सादिबन्ध कहलाता है । जैसे-ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियों का बन्ध सूक्ष्मसाम्पराय तक होता है। जो जीव सक्ष्मसाम्पराय में इनकी बन्धव्यच्छित्ति को करके आगे उपशान्तकषाय हुआ है उसके वहाँ उनके बन्ध का अभाव हो गया । पर वह जब उपशान्तकषाय से पतित होकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में आता है तब उसके उनका बन्ध फिर होने लगता है । यही सादिबन्ध का लक्षण है।
जीव जब तक श्रेणि पर आरूढ़ नहीं होता तब तक उसके अनादिबन्ध है। जैसे-उक्त
१. १० ख० पु० ६, पृ० २४-२६,२६,३८ व ४२ । एदाहि गाहादि उत्तासेसोहि खेत्ताणमेसो
अत्थो जहासंभवं परूवेदव्यो (पृ० २६)। इच्चादिगाहावग्गणसुत्तेहि सह विरोहादो (पृ० ४०)।
मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | १३७
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