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उपर्युक्त सूत्र में उन सासादन सम्यग्दृष्टि आदि के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा के प्रसंग में भागहार का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त कहा गया है। इस प्रसंग में धवलाकार का कहना है कि अन्तर्मुहूर्त तो अनेक प्रकार का है, उसमें यहां कितने प्रमाणवाले अन्तर्मुहूर्त की विवक्षा रही है, यह ज्ञात नहीं होता। इसलिए उसका निश्चय कराने के लिए यहाँ हम कुछ काल को प्ररूपणा करते हैं। ऐसी सूचना कर उन्होंने उस काल-प्ररूपणा के प्रसंग में कालविभाग का उल्लेख इस प्रकार किया है
१. असंख्यात समयों को लेकर एक आवली होती है। २. तत्प्रायोग्य संख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास होता है। ३. सात उच्छ्वासों को लेकर एक स्तोक होता है। ४. सात स्तोकों का एक लव होता है। ५. साढ़े अड़तीस लवों की एक नाली होती है।
धवला में आगे 'उक्तं च' ऐसा निर्देश करते हुए चार गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं। उनमें प्रथम दो गाथाओं में उपर्युक्त काल के विभागों का निर्देश है। दूसरी गाथा के उत्तरार्ध में इतना विशेष कहा गया है कि दो नालियों का मुहूर्त होता है। इस मुहूर्त में एक समय कम करने पर भिन्नमुहूर्त होता है।
तीसरी गाथा में कहा गया है कि हृष्ट-पुष्ट व आलस्य से रहित नीरोग पुरुष के उच्छ्वास निःश्वास को एक प्राण कहा जाता है।
चौथी गाथा में निर्देश किया है कि समस्त मनुष्यों के तीन हजार सात सौ तिहत्तर (३७७३) उच्छवासों का एक मुहूर्त होता है।
इसी प्रसंग में आगे धवला में यह स्पष्ट किया गया है कि कितने ही आचार्य जो यह कहते हैं कि सात सौ बीस प्राणों का एक मुहूर्त होता है वह घटित नहीं होता, क्योंकि उसका केवलीकथित अर्थ की अपेक्षा प्रमाणभूत अन्य सूत्र के साथ विरोध आता है। धवला में इस प्रसंगप्राप्त विरोध को गणित प्रक्रिया के आधार से स्पष्ट भी कर दिया गया है।'
पश्चात् सूत्र-निर्दिष्ट सासादनसम्यग्दृष्टि आदि के यथायोग्य अवहारकाल सिद्ध करते हुए सासादनसम्यग्दृष्टियों के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा वर्गस्थान में क्रम से खण्डित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति और विकल्प के ही आधार से की गयी है। ___आगे यह भी सूचना कर दी है कि सम्यरिमथ्यादृष्टियों, असंयत सम्यग्दृष्टियों और संयतासंयतों के प्रमाण की प्ररूपणा सासादन-सम्यग्दृष्टियों के समान करना चाहिए। विशेषता इतनी मात्र है कि उक्त खण्डित-विरलित आदि का कथन अपने-अपने अवहार काल के द्वारा करना चाहिए।
आगे धवला में 'हम इनकी संदृष्टि को कहते हैं ऐसी सूचना करते हुए चार गाथाओं को उद्धृत कर उनके आधार से संदृष्टि के रूप में उनके अवहारकाल आदि की कल्पना इस प्रकार की गयी है-सासादन-सम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल ३२, सम्यग्मिथ्यादृष्टियों का
१. धवला पु० ३, पृ० ६३-६८ २. धवला पु० ३, पृ० ६८-८७ ३. धवला पु० ३, पृ० ८७
३६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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