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यहाँ उपर्युक्त सारसंग्रहोक्त लक्षण और सर्वार्थसिद्धिगत दूसरा लक्षण इन दोनों नय के लक्षणों में निहित अभिप्राय प्रायः समान है। ___ इसके पूर्व यहीं पर धवला में 'तथा पूज्यपादभट्टारकरप्यभाणि सामान्यनयलक्षणमिदमेव' ऐसा निर्देश करते हुए नय का यह लक्षण भी उद्धृत किया गया है-प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः।
नय का लक्षण पूज्यपाद-विरचित 'सर्वार्थसिद्धि' में तो नहीं उपलब्ध होता है, किन्तु वह भद्राकलंकदेव-विरचित 'तत्त्वार्थवातिक' में उसी रूप में उपलब्ध होता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि धवलाकार ने 'पूज्यपाद' के रूप में जो दो बार उल्लेख किया है वह नामनिर्देश के रूप में तो नहीं किया, किन्तु आदरसूचक विशेषण के रूप में किया है और वह भी सम्भवतः भट्टाकलंकदेव के लिए ही किया है । सम्भव है धवला में निर्दिष्ट वह 'सारसंग्रह' अकलंकदेव के द्वारा रचा गया हो और वर्तमान में उपलब्ध न हो।
धवलाकार ने प्रसंग के अनुसार तत्त्वार्थवार्तिक के अन्तर्गत अनेक वाक्यों को उसी रूप में अपनी इस टीका में ले लिया है। उपर्युक्त नय के लक्षण का स्पष्टीकरण पदच्छेदपूर्वक जिस प्रकार तत्त्वार्थवार्तिक में किया गया है उसी प्रकार से शब्दशः उसी रूप में उसे भी धवला में ले लिया गया है।
२४. सिद्धिविनिश्चय-भट्टाकलंकदेव द्वारा विरचित इस 'सिद्धिविनिश्चय' का उल्लेख धवला में 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में दर्शनावरणीय प्रकृतियों के निर्देशक सूत्र (५,५,८५) की - व्याख्या के प्रसंग में किया गया है। वहाँ प्रसंग के अनुसार यह शंका उठायी गयी है कि सूत्र में विभंगदर्शन की प्ररूपणा क्यों नहीं की गयी है। उसका समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि उसका अन्तर्भाव चूंकि अवधिदर्शन में हो जाता है, इसीलिए सूत्र में उसका पृथक् से उल्लेख नहीं किया गया है। इतना स्पष्ट करते हुए उन्होंने आगे सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख इस प्रकार किया है
"तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्युक्तम्-अवधि-विभंगयोरवधिदर्शनमेव।"
२५. सुत्तपोत्थय-धवलाकार के समक्ष जो सूत्रपोथियाँ रही हैं उनमें प्रायः षट्खण्डागम व कषायप्राभूत आदि आगम-ग्रन्थों के मूल सूत्र व गाथाएँ आदि रही हैं। उनके अनेक संस्करण धवलाकार के समक्ष रहे हैं। इनके अन्तर्गत सूत्रों में उनके समय में कुछ पाठभेद व हीनाधिकता भी हो गयी थी। धवला में इन सूत्रपुस्तकों का उल्लेख इस प्रकार हुआ है
(१) केसु वि सुत्तपोत्थएसु पुरिसवेदस्संतरं छम्मासा ।-पु० ५, पृ० १०६
(२) बहुएसु सुत्तेसु वणप्फदीणं उवरि णिगोदपदस्स अणुवलंभादो, बहुएहि आइरिएहि संमदत्तादो च ।-पु०७, पृ० ५४०
यद्यपि यहाँ 'सूत्रपुस्तक' का निर्देश नहीं किया गया है, पर अभिप्राय भिन्न सूत्रपुस्तकों का ही रहा है।
(३) अप्पमत्तद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु देवाउअस्स बंधो वोच्छिज्जदि त्ति केसु वि सुत्तपोत्थएसु उवलब्भइ ।-पु० ८, पृ० ६५
१. धवला, पु० ६, पृ० १६५-६६ और त०वा० १,३३,१ २. धवला, पु० १३, पृ० ३५६
६.६ / षट्पण्डागम-परिशीलन
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