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तदनुसार ये तत्त्वार्थसूत्र में निर्दिष्ट चार कषायों और मिथ्यादर्शन में अन्तर्भत हो जाते हैं ।
सामान्य से असंयम और अविरत में विशेष भेद नहीं समझा जाता है। इसी अभिप्राय से सम्भवतः तत्त्वार्थसूत्र में असंयम से भिन्न 'अविरत' का अतिरिक्त उल्लेख नहीं किया गया।
सूत्र में असंयम और अविरत दोनों का पृथक्-पृथक् उल्लेख होने से धवला में उनकी विशेषता को प्रकट करते हुए समितियों से सहित अणुव्रत और महाव्रतों को संयम तथा समितियों से रहित उन महाव्रत और अणुव्रतों को विरति कहा है (पु० १४, पृ० ११-१२)।
तत्त्वार्थसूत्र में जो षट्खण्डागम से एक 'असिद्धत्व' अधिक है उसका अन्तर्भाव षटखण्डागम में चार गतियों में समझना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र में चूंकि मोक्ष को लक्ष्य में रखा गया है, इसीलिए सम्भवतः वहाँ 'असिद्धत्व' का पृथक् से उल्लेख किया गया है।
इस प्रकार उक्त रीति से जिस प्रकार औदयिक भावों की प्ररूपणा प्रायः दोनों ग्रन्थों में समान रूप से की गई है उसी प्रकार औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भावों की प्ररूपणा भी दोनों ग्रन्थों में लगभग समान रूप में ही की गई है।
विशेष इतना है कि तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ उस जाति के अनेक भावों को विवक्षित भाव के अन्तर्गत करके उनकी प्ररूपणा संक्षेप में की गई है वहाँ ष० ख० में ऐसे अनेक भावों का पृथक्-पृथक् उल्लेख करके उनकी प्ररूपणा विस्तार से की गई है। जैसे-----क्रोध-मानादि के उपशम व क्षय के होने पर उत्पन्न होनेवाले भावों का पृथक्-पृथक् उल्लेख । किन्तु ऐसे भावों का वहाँ पृथक्-पृथक् उरलेख करने पर भी तत्त्वार्थसूत्र निर्दिष्ट दो औपशमिक, नौ क्षायिक और अठारह क्षायोपशमिक भाव षट्खण्डागम में निर्दिष्ट भावों में समाविष्ट हैं। ___ एक विशेषता यह अवश्य देखी जाती है कि तत्त्वार्थसूत्र (२-७) में जिन तीन जीवत्व आदि पारिणामिक भावों का भी उल्लेख किया गया है उनका उल्लेख षट्खण्डागम में नहीं है ।
इस प्रसंग में वहाँ धवला में यह शंका की गई है कि जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व आदि जीवभाव पारिणामिक भी हैं; उनकी प्ररूपणा यहाँ क्यों नहीं की गई है। इसके समाधान में वहाँ कहा गया है कि वायु आदि प्राणों के धारण करने का नाम जीवन है । वह अयोगिकेवली के अन्तिम समय के आगे नहीं रहता, क्योंकि सिद्धों के प्राणों के कारणभूत आठ कर्मो का अभाव हो चुका है। इसलिए जीवल पारिणामिक नहीं है, किन्तु कर्मविपाकजन्य (औदयिक) है। तत्दार्थसत्र में जो जीवभाव को पारिणामिक कहा गया है वह प्राणधारण की अपेक्षा नहीं कहा गया, किन्तु चेतना गुण का आश्रय लेकर कहा गया है ।
चार अघाति कर्मों के उदय से उत्पन्न प्रसिद्धत्व दो प्रकार का है.-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित । इनमें जिन जीवों का असिद्धत्व अनादि-अपर्यवसित है उनका नाम अभव्य है तथा जिनका वह असिद्धत्व अनादि-सपर्यवसित है वे भव्य जीव है। इसलिए भव्यत्व और अभव्यत्व ये विपाकप्रत्ययिक (प्रौदयिक) ही हैं। तत्वार्थसूत्र में जो उन्हें पारिणामिक कहा गया है वह असिद्धत्व की अनादि-अपर्यवसितता और अनादि-सपर्यवसितता को निष्कारण मानकर कहा गया है।
१. औपशमिक-त० सूत्र २-३ व षट्खण्डागम ५, ६, १७ । क्षायिक--त० सूत्र २-४ व
षट्खण्डागम ५,६,१८ । क्षायोपशमिक-त० सूत्र २-५ व १० ख० ५,६, १६ २. धवला पु० १४, पृ० १३-१४
षट्खण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना / १६६
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