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इस प्रकार धवलाकार ने तत्त्वार्थसूत्र के साथ समन्वय करके उपर्युक्त शंका का समाधान कर दिया है। किन्तु इसके पूर्व इसी षट्खण्डागम के पूर्वोक्त भावानुगम अनुयोगद्वार में भव्य मार्गणा के प्रसंग में अभव्यत्व को पारिणामिक भाव कहा जा चुका है।'
यद्यपि वहाँ मूल में भव्यत्व का उल्लेख नहीं है, फिर भी प्रसंग प्राप्त उस सूत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने भव्यत्व को भी पारिणामिक भाव ही प्रकट किया है।'
आगे क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत स्वामित्वानुगम अनुयोगद्वार में भी भव्यत्व और अभव्यत्व दोनों को पारिणामिक कहा गया है ।
११. तत्त्वार्थसूत्र में आगे इसी अध्याय में सामान्य से जीवों के संसारी और मुक्त इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनमें संसारी जीवों के समनस्क (संज्ञी) और अमनस्क (असंज्ञी) इन दो भेदों के साथ उनके दो भेद त्रस और स्थावर का भी निर्देश किया गया है । तत्पश्चात् उनमें स्थावर कौन हैं और त्रस कौन हैं, इसे स्पष्ट करते हुए पृथिवी, जल, तेज, वायु और वनस्पति इन पाँच को स्थावर तथा द्वीन्द्रिय आदि (त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय) को त्रस कहा गया है।
ष० ख० में पूर्वोक्त जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वारों में से प्रथम सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में काय मार्गणा के प्रसंग में सर्वप्रथम पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और अकायिक (कायातीत मुक्त) जीवों का उल्लेख किया गया है । तत्पश्चात् यथाक्रम से पृथिवीकायिक आदि पांच स्थावर जीवों के बादरसूक्ष्म व पर्याप्त-अपर्याप्त आदि भेद-प्रभेदों को प्रकट किया गया है।५।।
यद्यपि सूत्र में उन पृथिवीकायिक आदि पाँच का उल्लेख स्थावर के रूप में नहीं किया गया है, तो भी धवलाकार ने उनके स्थावरस्वरूप को प्रकट कर दिया है।
आगे प्रसंगप्राप्त उन पृथिवीकायिकादिकों में पर्याप्त-अपर्याप्तता आदि का विचार करते हुए द्वीन्द्रिय आदिकों को त्रस कहा गया है।
उक्त क्रम से स्थावर और त्रस जीवों के भेद-प्रभेदों के निर्देशपूर्वक वहाँ यथा सम्भव गणस्थानों के अस्तित्व को भी प्रकट करते हुए प्रसंग के अन्त में यह स्पष्ट कर दिया है कि उक्त सशरीर (संसारी) स्थावर व त्रसों से परे अका यिक—शरीर से रहित मुक्त--जीव हैं।
१. अभवसिद्धिय त्ति को भावो? पारिणामिओ भावो ।-सूत्र १,७,६३ (पु० ५)। २. कुदो ? कम्माणमुदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वा अभवियत्ताणुपत्तीदो। भवियत्तस्स
वि पारिणामिओ चेव भावो, कम्माणमुदय-उवसम-खय-खोव समेहि भवियत्ताणुप्पत्ती
दो।-धवला पु० ५, पृ० २३० ३. भवियाणुवादेण भवसिद्धिओ अभवसिद्धिओ णाम कधं भवदि ? पारिणामिएण भावेण ।
सूत्र २,१,६४-६५ (पु० ७, पृ० १०६) ४. तत्त्वार्थसूत्र २, १०-१४ ५. सूत्र १,१,३६-४१ (पु० १, पृ० २६४-६८) ६. एते पञ्चापि स्थावरा:, स्थावर-नामकर्मोदयजनितविशेषत्वात् ।-धवला पु० १, २६५ ७. सूत्र १,१,४४ (पु० १, पृ० ३७५) ८. तेण परमकाइया चेदि । सूत्र १,१,४६
१७०/षट्खण्डागम-परिशीलन
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