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________________ इस स्थिति को देखते हुए यदि यह कहा जाय कि ष० ख० के उस भावानुयोग द्वार का तत्त्वार्थसूत्र में संक्षेपीकरण किया गया है तो असंगत नहीं होगा। तत्त्वार्थसूत्र की इस अर्थबहुल संक्षिप्त विवेचन पद्धति को देखते हुए उसमें सूत्र का यह लक्षण पूर्णतया घटित होता है ___ अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् गूढनिर्णयम् ।। निर्दोषं हेतुमत् तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः ॥ इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम के पांचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत जो 'बन्धन' अनुयोगद्वार है उसमें बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चार की प्ररूपणा की गई है। उनमें नाम-स्थापनादि के भेद से चार प्रकार के बन्ध की प्ररूपणा से प्रसंग में नोआगमभावबन्ध का विवेचन करते हुए उसके दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-जीवभावबन्ध और अजीवभावबन्ध । इनमें जीवभावबन्ध विपाक प्रत्ययिक, अविपाकप्रत्ययिक और तदुभयप्रत्ययिक के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध के लक्षण में कहा गया है कि कर्मोदयप्रत्ययिक जो भाव उदयविपाक से उत्पन्न होते हैं उन्हें जीवभावबन्ध कहा जाता है। वे भाव कौन-से हैं, इसे स्पष्ट करते हुए उनका उल्लेख वहाँ इस प्रकार किया गया है-(१) देव, (२) मनुष्य, (३) तिर्यंच, (४) नारक, (५) स्त्रीवेद, (६) पुरुषवेद, (७) नपुंसक वेद, (८) क्रोध, (९) मान, (१०) माया, (११) लोभ, (१२) राग, '(१३) द्वेष, (१४) मोह, (१५) कृष्णलेश्या, (१६) नीललेश्या, (१७) कापोतलेश्या, (१८) तजोलेश्या, (१६) पद्मलेश्या, (२०) शुक्ललेश्या, (२१) असंयत, (२२) अविरत, (२३) अज्ञान और (२४) मिथ्यादृष्टि । कर्मोदय के आश्रय से होनेवाले इन सब भावों को औदयिक समझना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र में इन औदयिक भावों का निर्देश इस प्रकार है-गति ४, कषाय ४, लिंग (वेद) ३, मिथ्यादर्शन १, अज्ञान १, असंयत १, असिद्धत्व १, और लेश्या ६ । ये सब २१ हैं ।' __ तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा यदि षट्खण्डागम में (१२) राग, (१३) द्वेष, (१४) मोह और (२२) अविरत ये चार भाव अधिक हैं तो तत्त्वार्थसूत्र में षट्खण्डागम की अपेक्षा एक 'असिद्धत्व' अधिक है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट इन औदयिक भावों में जो थोड़ी-सी-हीनाधिकता देखी जाती है उसका कोई विशेष महत्त्व नहीं दिखता। कारण यह कि षट्खण्डागम में जिन रागद्वेष आदि अधिक भावों का निर्देश किया गया है उनका तत्त्वार्थसूत्र में अन्यत्र अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे--धवलाकार के अभिमतानुसार राग माया और लोभ स्वरूप है, द्वेष क्रोध और मानस्वरूप है, तथा मोह पाँच प्रकार के मिथ्यात्वादिस्वरूप है। १. धवला पु० ६, पृ० २५६ पर उद्धृत । २. षट्खण्डागम सूत्र ५,६,१५ (पु० १४, पृ० १०-११) ३. त० सूत्र २-६ ४. रागो विवागपच्चइयो, माया-लोभ-हस्स-रदि-तिवेदाणं दव्वकम्मोदयजणिदत्तादो । दोसो विवागपच्चइयो, कोह-माण-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं दव्वकम्मोदयजणिदत्तादो। पंचविहमिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं सासणसम्मत्तं च मोहो, सो विवागपच्चइयो; मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधीणं दव्वकम्मोदजणिदत्तादो।-धवला पु० १४, पृ० ११ १६८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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