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समुद्घात के होने पर अघातिया कर्मों की स्थिति को अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थापित करता है। अन्य तीन अघातिया कर्मों की यह अन्तर्मुहूर्त स्थिति आयुस्थिति से संख्यातगुणी होती है।'
उक्त मतभेद को उसकी टीका जयधवला में धवला के ही समान प्रकट किया गया है। यथा
__ "एत्थ दुहे उवएसा अस्थि त्ति के वि भणंति। तं कथं ? महावाचयाणमज्जमखुखवणाणमववेसेण लोगे पूरिदे आउगसमं णामा-गोद-वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्मं ठवेदि। महावाचयाणं णागहत्थिखवणाणमवएसेण लोगे पूरिदे णामा-गोद-वेदणीयाणं ट्ठिदिसंतकम्ममंतोमुहुत्तपमाणं होदि । होतं वि आउगादो संखेज्जगुणमेत्तं ठवेदि त्ति । णवरि एसो वक्खाणसंपदाओ चण्णिसत्तविरुद्धो, चण्णिसत्ते मुत्तकंठमेव संखेज्जगुणमाउआदो त्ति णिद्दिठ्ठत्तादो। तदो पवाइज्जतोवएसो एसो चेव । पहाणभावेणावलंबेयव्वो।"-जयध० १, प्रस्तावना पृ० ४३ ___यहाँ यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि ऊपर धवला में जिस मत का उल्लेख महावाचक . आर्यनन्दी के नाम से किया गया है उसी मत का उल्लेख ऊपर जयधवला में महावाचक नागहस्ती के नाम से किया गया है।
(७) धवला से इसी अल्पबहुत्व के प्रसंग में आगे कहा गया है कि अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में महावाचक क्षमाश्रमण (?) सत्कर्म का मार्गण करते हैं । इसे स्पष्ट करते हुए आगे वहाँ कहा गया है-आहारसत्कमिक सबसे स्तोक हैं, उनसे सम्यक्त्व के सत्कर्मिक असंख्यातगणे हैं, इत्यादि।
यहाँ भी महावाचक क्षमाश्रमण से धवलाकार का अभिप्राय आर्यमा का, नागहस्ती का अथवा अन्य ही किसी का रहा है। यह स्पष्ट नहीं है।
इसके पूर्व इसी अभिमत को धवला में नागहस्ती भट्टारक के नाम से प्रकट किया जा चुका है तथा उसे ही प्रवाह्यमान या आचार्य-परम्परागत भी इस प्रकार कहा गया है___ "अप्पाबहुगअणियोगद्दारे णागहत्थिभडारओ संतकम्ममग्गणं करेदि । एसो च उवदेसो पवाइज्जदि ।"-धवला, पु० १६, पृ० ५२२ पवाइज्जंत-अप्पवाइज्जंत उपदेश
_ 'पवाइज्जत' का अर्थ आचार्यपरम्परागत और 'अप्पवाइज्जंत' का अर्थ आचार्यपरम्परा से अनागत है। ऊपर के उल्लेख में धवलाकार ने नागहस्ती भट्टारक के उपदेश को 'पवाइज्जदि' कहकर आचार्यपरम्परागत कहा है।
इसके पूर्व अघातिया कर्मों की स्थिति से सम्बन्धित जयधवला के जिस प्रसंग को उद्धत किया गया है उसमें धवलाकार ने महावाचक आर्यमंक्षु के उपदेश को चूर्णिसूत्र के विरुद्ध कहकर अग्राह्य प्रकट करते हुए महावाचक नागहस्ती के उपदेश को 'पवाइज्जंत' कहकर आश्रयणीय कहा है। ___ जयधवलाकार ने दीर्घकाल से अविच्छिन्न परम्परा से आने वाले समस्त आचार्यसम्मत उपदेश को पवाइज्जंत उपदेश कहा है। प्रकारान्तर से आगे उन्होंने यह भी कहा है----अथवा आर्यमा भगवान का उपदेश यहाँ (अघातिया कर्मों की स्थिति के प्रसंग में) अप्पवाइज्जमाण है १. लोगे पुण्णे अंतोमुहुत्तं ट्ठिदि ठवेदि । संखेज्जगुणमाउआदो।
—क०पा० सुत्त पृ०६०२, चूणि १३-१४ २. देखिए धवला, पु० १६, पृ० ५७६ आदि ।
प्रन्थकारोल्लेख | ६५३
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