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________________ यहाँ यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि पूर्व में उस कर्मस्थिति के प्रसंग में आर्यमा के नाम से जिस मत का उल्लेख किया गया है, उसी मत का उल्लेख यहाँ आर्यनन्दी के नाम से किया गया है।' आर्यनन्दी और आर्यमंक्षु ये दो अभिन्न रहे हैं या उक्त मत के अनुयायी वे दोनों पृथक्-पृथक् रहे हैं, यह अन्वेषणीय है। (६) यहीं पर आगे 'पश्चिमस्कन्ध' (२३) से सम्बद्ध उस अल्पबहुत्व में धवलाकार ने 'पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वार में वहाँ यह मार्गणा है' इस प्रकार सूचना करते हुए आवर्जितकरण और केवलिसमुद्घात का विचार किया है । इसी प्रसंग में, वहां यह भी कहा गया है कि महावाचक आर्यमा श्रमण के उपदेशानुसार लोकपूरण समुद्घात के होने पर केवलीजिन शेष तीन अघातिया कर्मों की स्थिति को आयु के समान करते हैं। किन्तु महावाचक आर्यनन्दी के उपदेशानुसार शेष तीन अधातिया कर्मों की स्थिति को अन्तर्मुहर्त प्रमाण करते हैं जो आयु से संख्यातगुणी रहती है। इस प्रकार यह आर्यनन्दी का मत आर्यमंक्षु के मत से विपरीत है। इसके पूर्व धवला में पश्चिमस्कन्ध में जो प्ररूपणा की जा चुकी है, वही प्ररूपणा लगभग उसी रूप में यहाँ (अल्पबहुत्व में) पुनः की गयी है। विशेषता यह रही कि पूर्व में की गयी उस प्ररूपणा के प्रसंग में अघातिया कर्मों की उस स्थिति के विषय में किसी प्रकार के मतभेद को नहीं प्रकट किया गया है। किन्तु उसके विषय में यहाँ उपर्युक्त आर्यमंक्षु और आर्यनन्दी के दो भिन्न मतों का उल्लेख किया गया है। यह प्ररूपणा कषायप्राभूत के अन्तर्गत 'पश्चिमस्कन्ध' में की गयी है। धवलाकार ने सम्भवत: उसी का अनुसरण किया है। कषायप्राभूतचूर्णि में की गयी उस प्ररूपणा के प्रसंग में उपर्युक्त अघातिया कर्मों की स्थिति विषयक कोई मतभेद नहीं प्रकट किया गया है। वहाँ इतना मात्र कहा गया है कि लोकपूरण १. यथा-अज्जमंखुखमासमणा पुण कम्मट्ठिदिसंचिदसंतकम्मपरूवणा कम्मट्ठिदिपरूवणे त्ति भणंति ।-धवला, पु० १६, पृ० ५१८ कम्मट्ठिदि त्ति अणियोगद्दारे एत्थ महावाचया अज्जणंदिणो संतकम्मं करेंति । -धवला, पु० १६, पृ० ५७७ (सम्भवतः धवलाकार भी इन मतभेदों के विषय में असन्दिग्ध नहीं रहे, इसी से स्पष्टतया वह प्ररूपणा नहीं की जा सकी है। कहीं-कहीं इस प्रसंग में नामनिर्देश के बिना केवल 'महावाचमाणं खमासमणाणं उवदेसेण' ... 'महावाचया ट्ठिदिसंतकम्मं पयासंति' इन उपाधिपरक पदों का ही प्रयोग किया है, जब कि आर्यनन्दी, आर्यमंक्षु और नागहस्ती तीनों ही 'महावाचक क्षमाश्रमण' रहे हैं। २. धवला, पु० १६, पृ० ५७८ ३. वही, पृ० ५१६-२१ व आगे पृ० ५७७-७६ ४. देखिए क० प्रा० चूणि ३६-५१ (क०पा० सुत्त प० ६००-६०६) ५. प्रसंगवश यह कुछ प्ररूपणा धवला में इसके पूर्व 'वेदनाद्रव्यविधान' में भी की गयी है। वहाँ भी अघातिया कर्मों की स्थिति के विषय में कुछ मतभेद नहीं प्रकट किया गया है। देखिए पु० १०, पृ० ३२०-२६ ६५२ / षट्लण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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