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________________ और नागहस्ती क्षपण का उपदेश पवाइज्जत है, इसलिए इसे ही ग्रहण करना चाहिए । यथा "को पुण पवाइज्जतोवएसोणाम वुत्तमेदं? सव्वाइरियसम्मदो चिरकालमन्वच्छिण्णसंपदायकमेणागच्छमाणो जो सिस्सपरंपराए पवाइज्जदे पण्णविज्जदे सो पवाइज्जंतोवएसो त्ति भण्णदे । अथवा अज्जमखुभयबंताणमुवएसो एत्थापवाइज्जमाणो णाम । णागहत्थिखवणाणमुवएसो पवाइज्जंतओ त्ति घेत्तव्वं ।” धवला में भी प्राय: पवाइज्जत-अप्पवाइज्जत उपदेश का स्वरूप इसी प्रकार का कहा गया है। वहां नामान्तर से उसे दक्षिणप्रतिपत्ति व उत्तरप्रतिपत्ति भी कहा गया है। यद्यपि धवलाकार ने उक्त प्रसंग में नागहस्ती क्षमाश्रमण के उपदेश को पवाइज्जमाण और आर्यमंक्ष के उपदेश को अपवाइज्जमाण नहीं कहा है, फिर भी अन्यत्र उन्होंने भी नागहस्ती भट्टारक के उपदेश को पवाइज्जमाण कहा है । यथा "अप्पाबहगअणियोगद्दारे णागहत्थिभडारओ संतकम्ममग्गणं करेदि । एसो च उवदेसो पवाइज्जदि ।"-पु० १६, पृ० ५२३ इसका अभिप्राय यह समझना चाहिए कि विवक्षित विषय के प्रसंग में जहाँ आचार्य आर्यमंक्षु और नागहस्ती के बीच में कुछ मतभेद रहा है, वहीं आ० नागहस्ती के उपदेश को आचार्य-परम्परागत मानकर प्रमाणभूत माना गया है और आर्यमा के उपदेश की उपेक्षा की गयी है। किन्तु जिस विषय में उन दोनों के मध्य में किसी प्रकार का मतमेद नहीं रहा हैएकरूपता रही है-उसका उल्लेख उन दोनों के ही नाम पर आदरपूर्वक किया गया है । यथा-- "पवाइज्जंतेण पुण उवएसेण सव्वाइरियसम्मदेण अज्जमखु-णागहत्थिमहावाचयमुह-कमलविणिग्गयेण सम्मत्तस्स अट्ठवस्साणि ।"3 श्वेताम्बर परम्परा में आर्यमंगु के विषय में यह प्रसिद्धि है कि वे विहार करते हुए किसी समय मथुरा पहुँचे । वहाँ कुछ भक्तों की सेवासुश्रूषा पर मुग्ध होकर वे रसगारव आदि के वशीभूत होते हुए वहीं रह गये। इस प्रकार श्रामण्य धर्म से भ्रष्ट हुए उनका मरण वहीं पर हआ।४ . __ यदि इसमें कुछ तथ्यांश है तो सम्भव है कि इस कारण भी आर्यमंक्षु या आर्य मंगु के उपदेश की उपेक्षा की गयी हो। उपसंहार (१) गुणधराचार्य ने सोलह हजार पद-प्रमाण कषायप्राभूत का जिन एक सौ अस्सी या दो सौ तेतीस सूत्रगाथाओं में उपसंहार किया था वे आचार्य-परम्परा से आकर महावाचक आर्यमंक्षु और महावाचक नागहस्ती को प्राप्त हुई थीं। उन दोनों ने उनके अन्तर्गत अपरिमित गम्भीर अर्थ का व्याख्यान यतिवृषभाचार्य को किया था। (२) यतिवृषभाचार्य ने आर्यमंक्षु और नागहस्ती से उन सूत्रगाथाओं के रहस्य को सुनकर १. क० पा० सुत्त प्रस्तावना, पृ० २४-२५ २. धवला, पु० ३, पृ० ६२,६४,६८ व ६६ तथा पु० ५, पृ० ३२ ३. क० प्रा० (जयधवला) भा० १ की प्रस्तावना, पृ० ४१ ४. देखिए 'अभिधान-राजेन्द्र' कोश में 'आर्यमंगु' शब्द । ६५४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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