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उनके ऊपर छह हजार ग्रन्थप्रमाण चूर्णिसूत्रों को रचा। इससे आर्यमंक्षु, नागहस्ती और यतिवृषभ इन तीनों श्रुतधरों की कर्मसिद्धान्तविषयक अगाध विद्वत्ता प्रकट होती है।
(३) उक्त सूत्रगाथाओं और चूर्णिसूत्रों में निहित अर्थ के स्पष्टीकरणार्थ वीरसेनाचार्य और उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने क्रम से बीस और चालीस हजार (समस्त ६००००) ग्रन्थ प्रमाण जयधवला नाम की टीका लिखी।
(४) आर्यमंक्षु (आर्यमंगु) और नागहस्ती क्षमाश्रमण इन दोनों श्रुतधरों को श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । नन्दिसूत्रंगत स्थविरावली के अनुसार उनकी गुरुशिष्य परम्परा इस प्रकार रही-(१) आर्यसमुद्र, (२) आर्यभक्षु (या आर्यमंगु), (३) आर्यनन्दिल और नागहस्ती।।
(५) मुनि कल्याणविजयजी के अभिमतानुसार आर्यमंगु और नागहस्ती इन दोनों के मध्य में लगभग १५० वर्ष का अन्तर रहता है, जबकि धवला और जयधवला के उल्लेखानसार वे दोनों यतिवृषभाचार्य के गुरु के रूप में समकालीन ठहरते हैं। उनके यह समय की समस्या विचारणीय है।
(६) इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार के अनुसार ये दोनों आचार्य गुणधराचार्य के समकालीन सिद्ध होते हैं।
(७) धवलाकार ने मतभेद के प्रसंग में आर्यमा और नागहस्ती महावाचक के साथ आर्यनन्दी का भी दो बार उल्लेख किया है। ये आर्यनन्दी क्या नन्दिसूत्र की स्थविरावली में निर्दिष्ट आर्यनन्दिल सम्भव हैं ?
(८) धवला और विशेषकर जयधवला में कहीं-कहीं आर्यमंक्षु के उपदेश को आचार्यपरम्परागत न होने से 'अपवाइज्जमाण' और नागहस्ती के उपदेश को आचार्य परम्परागत होने से 'पवाइज्जमाण' कहा गया है । ३. उच्चारणाचार्य
यह किसी आचार्यविशेष का नाम नहीं है । आचार्यपरम्परागत सूत्रों व गाथाओं आदि का आम्नाय के अनुसार जो विधिपूर्वक शुद्ध उच्चारण कराते और अर्थ का व्याख्यान किया करते थे, उन्हें उच्चारणाचार्य कहा जाता था। ऐसे उच्चारणाचार्य समय-समय पर अनेक हुए हैं।
वेदनाद्रव्यविधान अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट द्रव्यवेदना किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए गुणितकौशिक की, जिसके उसकी वह उत्कृष्ट द्रव्यवेदना होती है, अनेक विशेषताओं को प्रकट किया गया है । उनमें उसकी एक विशेषता यह भी है कि उसके उपरिम स्थितियों के निषेक का उत्कृष्ट पद और अधस्तन स्थितियों के निषेक का जघन्य पद होता है (सूत्र ४,२,४,११)।
इसकी व्याख्या के प्रसंग में धवला में कहा गया है कि तीव्रसंक्लेश विलोम प्रदेशविन्यास का कारण और मन्दसंक्लेश अनुलोम प्रदेशविन्यास का कारण होता है । इस प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि यह उच्चारणाचार्य के अभिमतानुसार प्ररूपणा की गयी है।
किन्तु भतबलिपाद का अभिप्राय यह है कि विलोम विन्यास का कारण गुणितकर्माशिकत्व और अनुलोम विन्यास का कारण क्षपितकर्मा शिकत्व है, न कि संक्लेश और विशुद्धि ।' १. देखिए धवला, पु० १०, १० ४४-४५
ग्रन्थकारोल्लेख / ६५५
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