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________________ वेदना अनुयोगद्वार के अत्यधिक विस्तृत होने के कारण यह खण्ड 'वेदना' नाम से प्रसिद्ध हुआ है। १. कृति अनुयोगद्वार ___वेदना खण्ड को प्रारम्भ करते हुए इस कृति अनुयोगद्वार में सर्वप्रथम ‘‘णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं" को आदि लेकर "णमो वद्धमाणबद्धरिसिस्स" पर्यन्त ४४ सूत्रों के द्वारा मंगल के रूप में 'जिनों' और 'अवधिजिनों आदि को नमस्कार किया गया है। । तत्पश्चात् ४५वें सूत्र में यह निर्देश किया गया है कि अग्रायणीय पूर्व के अन्तर्गत चौदह 'वस्तु' नाम के अधिकारों में पाँचवें अधिकार का नाम च्यवनलब्धि है। उसके अन्तर्गत बीस प्राभतों में चौथा कर्मप्रकृतिप्राभत है। उसमें ये २४ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-१. कृति २. वेदना, ३. स्पर्श, ४. कर्म, ५. प्रकृति, ६. बन्धन, ७. निबन्धन, ८. प्रक्रम, ६. उपक्रम, १०. उदय, ११. मोक्ष, १२. संक्रम, १३. लेश्या, १४. लेश्याकर्म, १५. लेश्यापरिणाम, ६. सात-असात, १७. दीर्घ-ह्रस्व, १८. भवधारणीय, १६. पुद्गलात्त, २०. निधत्त-अनिधत्त, २१. निकाचित-अनिकाचित, २२. कर्मस्थिति, २३. पश्चिमस्कन्ध और २४ अल्पबहुत्व । _इन २४ अनुयोगद्वारों में प्रथम कृति अनुयोगद्वार है। इसमें 'कृति' की प्ररूपणा की गई है । वह सात प्रकार की है - --१. नामकृति, २. स्थापनाकृति, ३. द्रव्यकृति, ४. गणनाकृति. ५. ग्रन्थकृति, ६. करणकृति और ७ भावकृति (सूत्र ४६)। इस प्रकार से इन सात कृतिभेदों का निर्देश करके आगे 'कृतिनयविभाषणता' के आश्रय से कौन नय किन कृतियों को स्वीकार (विषय) करता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि नैगम, व्यवहार और संग्रह ये तीन नय उन सब ही कृतियों को स्वीकार करते हैं। ऋजुसूत्रनय स्थापना कृति को स्वीकार नहीं करता है-शेष छह को वह विषय करता है। शब्द नय आदि नाम कृति और भाव कृति को स्वीकार करते हैं (४७-५०)। १. इस प्रकार कृतिनयविभाषणता को समाप्त कर आगे क्रम से उन सात कृतियों के स्वरूप को प्रकट करते हुए प्रथम नामकृति के विषय में कहा गया है कि जो एक जीव, एक अजीव, बहुत जोव, बहुत अजीव, एक जीव व एक अजीव, एक जीव व बहुत अजीव, बहुत जीव व एक अजीव तथा बहुत जीव व बहुत अजीव इन आठ में जिसका ‘कृति' यह नाम किया जाता है उसे नामकृति कहते हैं (५१)। २. काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोत्तकर्म, लेप्यकर्म, लेण्ण (लयन) कर्म, शैलकर्म, गृहकर्म, भित्ति कर्म, दन्तकर्म और भंडकर्म इनमें तथा अक्ष व वराटक इनको आदि लेकर और भी जो इसी प्रकार के हैं उनमें 'यह कृति है' इस प्रकार से स्थापना के द्वारा जो स्थापित किये जाते हैं उस सबका नाम स्थापनाकृति है (५२) । ___ अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त काष्ठकर्म आदि विविध क्रियाविशेषों के आश्रय से जो मूर्तियों की रचना की जाती है उसका नाम सद्भाव (तदाकार) स्थापनाकृति है तथा अक्ष (पांसा) व कौड़ी आदि में जो ‘कृति' इस प्रकार स्थापना की जाती है उसे असद्भाव (अतदाकार) स्थापनाकृति जानना चाहिए। ३. द्रव्यकृति दो प्रकार की है-आगमद्रव्यकृति और नोआगम द्रव्यकृति । इनमें जो आगम द्रव्यकृति है उसके ये नौ अर्थाधिकार हैं—स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, मूलप्रन्यगत विषय का परिचय / ७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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