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________________ अर्थसम, ग्रन्थसम; नामसम और घोषसम (५३-५४)। __ आगे 'बन्धन' अनुयोगद्वार में आगमभावबन्धका विचार करते हुए पुनः इसी प्रकार का प्रसंग प्राप्त हुआ है (सूत्र ५, ६, १२ पु० १४, पृ० ७)। वहाँ और यहाँ भी धवलाकार ने इन स्थित-जित आदि आगमभेदों के स्वरूप को स्पष्ट किया है। इन दोनों प्रसंगों पर जो उनके लक्षणों में विशेषता देखी जाती है उसे भी यहाँ साथ में स्पष्ट किया जाता है। यथा जो पुरुष वृद्ध अथवा रोगी के समान भावागम में धीरे-धीरे संचार करता है उस पुरुष और उस भावागम का नाम भी स्थित है । आगे पुनः प्रसंग प्राप्त होने पर धवला में उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए यह भी कहा गया है कि जिसने बारह अंगों का अवधारण कर लिया है वह साधु स्थित-श्रुतज्ञान होता है। स्वाभाविक प्रवत्ति का नाम जित है, जिस संस्कार से पुरुष निर्वाध रूप से भावागम में संचार करता है उस संस्कार से युक्त पुरुष को और उस भावागम को भी जित कहा जाता है। ___जिस-जिस विषय में प्रश्न किया जाता है उस-उसके विषय में जो शीघ्रता से प्रवृत्ति होती है उसका नाम परिचित है, तात्पर्य यह कि जिस जीव की प्रवृत्ति भावागम रूप समुद्र में क्रम, अक्रम अथवा अनुभय रूप से मछली के समान अतिशय चंचलापूर्वक होती है उस जीव को और भावागम को भी परिचित कहा जाता है। प्रकारान्तर आगे इसके लक्षण में यह भी कहा गया है कि जो बारह अंगों में पारंगत होता हुआ निर्बाध रूप से जाने हुए अर्थ के कहने में समर्थ होता है उसे परिचित श्रुतज्ञान कहते हैं। जो नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या इन चार प्रकार की वाचनाओं को प्राप्त होकर दूसरों के लिए ज्ञान कराने में समर्थ होता है उसका नाम वाचनोपगत है । तीर्थंकर के मुख से निकले हुए बीजपद को सूत्र कहते हैं, उस सूत्र के साथ जो रहता है, उत्पन्न होता है, ऐसे गणधर देव में स्थित श्रुतज्ञान को सूत्रसम कहा जाता है। प्रकारान्तर से आगे उसके प्रसंग में श्रुतकेवली को सूत्र और उसके समान श्रुतज्ञान को सूत्रसम कहा गया है । अथवा बारह अंगस्वरूप शब्दागम का नाम सूत्र है, आचार्य के उपदेश बिना जो श्रुतज्ञान सूत्र से ही उत्पन्न होता है उसे सूत्रसम जानना चाहिए। बारह अंगों के विषय का नाम अर्थ है, उस अर्थ के साथ जो रहता है उसे अर्थसम कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि द्रव्यश्रुत-आचार्यों की अपेक्षा न करके, संयम के आश्रय से होनेवाले श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से जो बारह अंगस्वरूप श्रुत होता है तथा जिसके आधार स्वयंबुद्ध हुआ करते हैं उसे अर्थसम कहा जाता है। आगे पुनः उस प्रसंग के प्राप्त होने पर आगमसूत्र के बिना समस्त श्रुतज्ञानरूप पर्याय से परिणत गणधर देव को अर्थ और उसके समान श्रुतज्ञान को अर्थसम कहा गया है। यहीं पर प्रकारान्तर से यह भी कहा गया है कि अथवा बीजपद का नाम अर्थ है, उससे जो समस्त श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह अर्थसम कहलाता है। गणधर देव विरचित द्रव्यश्रुत का नाम ग्रन्थ है, उसके साथ जो द्वादशांग श्रुतज्ञान रहता है, उत्पन्न होता है उसे ग्रन्थसम कहते हैं। यह श्रुतज्ञान बोधितबुद्ध आचार्यों में अवस्थित रहता है । आगे पुनः प्रसंग प्राप्त होने पर उसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि १. धवला पु० ६, पृ० २५१-६१ तथा पु० १४, पृ० ७-८ ७४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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