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१६ कर्मप्रकृतियों का कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है, इस प्रश्न के साथ उसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धि-संयतों में उपशमक और क्षपक तक बन्धक हैं, सूक्ष्म साम्परायिक शुद्धिकाल के अन्तिम समय में जाकर उनके बन्ध का व्युच्छेद होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं (५-६)।
इन सूत्रों की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उन्हें देशामर्शक कहकर उनसे सूचित अर्थ की प्ररूपणा में पृच्छास्वरूप ५वें सूत्र की व्याख्या में क्या बन्धपूर्व में व्युच्छिन्न होता है, क्या उदय पूर्व में व्युच्छिन्न होता है; क्या दोनों साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं; इनका क्या अपने उदय के साथ बन्ध होता है, इत्यादि रूप से सूत्रगत एक ही पृच्छा में निलीन २३ पृच्छाओं को उद्भावित किया है तथा उनमें से कुछ विषम पृच्छाओं का समाधान भी किया है।'
इनका स्पष्टीकरण आगे 'धवलागत विषय परिचय' के. प्रसंग में किया गया है।
अगले सूत्र (६) की व्याख्या में उन्होंने उपर्युक्त २३ पृच्छाओं को उठाकर सूत्र में निर्दिष्ट उन पांच ज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियों के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के विषय में भी प्रस्तुत प्ररूपणा विस्तार से की है। यहाँ धवला में इस प्रसंग से सम्बद्ध अनेक प्राचीन आर्ष गाथाओं को उद्धृत करते हुए उनके आधार से यह प्रासंगिक विवेचन विस्तार से किया गया है। इस विषय में विशेष प्रकाश आगे धवला के प्रसंग में डाला जाएगा। ___इसी पद्धति से आगे दर्शनावरण के अन्तर्गत निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला व स्त्यानगृद्धि तथा अन्य अनन्तानुबन्धी आदि प्रकृतियों के बन्धक-अबन्धकों का विचार करते हुए इस ओघाश्रित प्ररूपणा को समाप्त किया गया है (७-३८) ।
यहाँ प्रसंग पाकर आगे तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध के कारणभूत दर्शनविशुद्धि आदि १६ कारणों का भी उल्लेख किया गया है। साथ ही उसके प्रभाव से प्राप्त होनेवाली लोकपूज्यता आदि रूप विशेष महिमा को भी प्रकट किया गया है (३६-४३)।
उन १६ कारणों का विवेचन धवला में विस्तार से किया गया है।'
आदेशप्ररूपणा
ओघप्ररूपणा के समान वह बन्धक-अबन्धकों की प्ररूपणा आगे आदेश की अपेक्षा यथाक्रम से गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में की गई है (४३-३२४)। इस प्रकार यह तीसरा खण्ड ३२४ सूत्रों में समाप्त हुआ है। वह उन १६ जिल्दों में से ८वीं जिल्द में प्रकाशित हुआ है।
चतुर्थ खण्ड : वेदना पूर्वनिर्दिष्ट महाकर्म प्रकृतिप्राभृत के कृति-वेदनादि २४ अनयोगद्वारों में से प्रारम्भ के कृति और वेदना ये दो अनुयोगद्वार इस 'वेदना' खण्ड के अन्तर्गत हैं। कृति अनुयोगद्वार से
१. धवला पु० ८, पृ० ७-१३ २. वही, पृ० १३-३० ३. वही, पु० ८, पृ० ७६-६१
७२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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