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________________ जाने पर जम्बू भट्टारक उस केवलज्ञान सन्तान के धारक हुए । अड़तीस वर्ष केवलिविहार से विहार करके जम्बू भट्टारक के मुक्त हो जाने पर भरतक्षेत्र में केवलज्ञान सन्तान का विच्छेद हो गया। इस प्रकार महावीर निर्वाण के पश्चात् बासठ वर्षों में केवलज्ञानरूप सूर्य भरतक्षेत्र में अस्तंगत हो गया। ___ इसके पूर्व जैसा कि सत्प्ररूपणा में कहा जा चुका है, तदनुसार वेदनाखण्ड के प्रारम्भ (कृति अनुयोगद्वार) में भी आगे पाँच श्रुतकेवलियों, ग्यारह एकादश-अंगों व दस पूर्वी के धारकों, पाँच एकादशांगधरों और चार आचारांगधरों का उल्लेख किया गया है । विशेषता वहाँ यह रही है कि उक्त पाँच श्रुतकेवलियों आदि के समय का भी साथ में उल्लेख किया गया है। वह इस प्रकार हैवर्ष केवली आदि ३ केवली १०० ५ श्रुतकेवली १८३ ११ ग्यारह अंगों व विद्यानुवादपर्यन्त दृष्टिवाद के धारक २२० ५ ग्यारह अंगों व दष्टिवाद के एकदेश के धारक ११८ ४ आचारांग के साथं शेष अंग-पूर्वो के एकदेश के धारक ६८३ समस्त काल का प्रमाण अन्तिम आचारांगधर लोहार्य के स्वर्गस्थ हो जाने पर आचारांग लुप्त हो गया । इस प्रकार भरतक्षेत्र में आचारांग आदि बारह अंगों के अस्तंगत हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वो के एकदेशभूत पेज्ज-दोस और महाकम्मपडिपाहुड आदि के धारक रह गये। इस प्रकार प्रमाणीभूत महर्षियों की परम्परा से आकर महाकम्मपयडिपाहुड धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ। उन्होंने भी उस समस्त महाकम्मपयडिपाहुड को गिरिनगर की चन्द्रगुफा में भूतबलि और पुष्पदन्त को समर्पित कर दिया । तत्पश्चात् भूतबलि भट्टारक ने श्रुत-नदी के प्रवाह के विच्छेद से भयभीत होकर भव्यजन के अनुग्रहार्थ उस महाकम्मपयडिपाहुड का उपसंहार कर छह खण्ड किये। इसलिए अनन्त केवलज्ञान के प्रभाव से प्रमाणीभूत आचार्यपरम्परा से चले आने के कारण प्रत्यक्ष और अन मान के विरोध से रहित यह ग्रन्थ प्रमाण है । इसलिए मुमुक्ष भव्य जीवों को उसका अभ्यास करना चाहिए।' सिद्धान्त का अध्ययन __ यहाँ यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि आचार्य वीरसेन ने सामान्यतः सभी मुमुक्षु भव्य जीवों से प्रस्तुत षट्खण्डागम के अध्ययन की प्रेरणा की है, उन्होंने उसके अभ्यास के लिए विशेषरूप से केवल संयतजनों को ही प्रेरित नहीं किया। १. धवला पु० १, पृ० ६४-६७ २. धवला पु० ६, पृ० १३०-१३४ ३. तदो भूदबलिभडारएण सुद-णईपवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगाणुग्गहट्ठ महाकम्म पयडिपाहुडमुवसंहरिऊण छखंडाणि कयाणि । तदो तिकालगोयरासेसपयत्थविसयपच्चक्खाणंतकेवलणाणप्पभावादो पमाणीभूदआइरिय-पणालेणागदत्तारो पमाणमेसो गंथो। तम्हा मोक्खकविणा भवियलोएण अडभसेयव्यो ।-पु० ६, पृ० १३३-१३५४ १० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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